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प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय] ७६४, जेन-लक्षणावली
[प्रामित्य पाहुडसमाससुदणाणं होदि। एवमेगेगक्खर-उत्तर- डिया होइ ठवणा उ ॥ (पिण्डनि. २८४) । गड्ढीए पाहुडपाहुडसमाससुदणाणं वड्ढमाणं गच्छदि भिक्षा का ग्राहक एक साधु एक घर में उपयोग भाव एगक्खरेणूणपाहुडसुदणाणेत्ति । (धव. पु. १३, करता है-उपयोग से पर्यालोचन करके एक पंक्ति पृ. २७०)। २. तद्वयादिसंयोगस्तु प्राभृतप्राभृत- में स्थित तीन घरों में से एक घर में हस्तगत भिक्षा समासः । (शतक. मल. हेम. व. ३८, पृ. ४२, को ग्रहण करता है। दूसरा साधु दो घरों में उपकर्मवि. दे. स्वो. व. ७)।
योग करता है-- उक्त रीति से दो घरों में हस्तगत १ प्राभूतप्राभूत श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर के बढ़ने हो जिनामों को गण
दो भिक्षाओं को ग्रहण करता है। तीन घरों के पर प्राभृतप्राभृतसमास श्रुतज्ञान होता है। इस अतिरिक्त जहां तक अन्य घर नहीं है वहां तक प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षर की वृद्धि के होने भिक्षा के ग्रहण में स्थापना दोष नहीं होता है। पर एक अक्षर से हीन प्राभूतश्रुतज्ञान के प्राप्त होने प्रागे गहान्तर में साध के निमित्त हस्तगत भिक्षा के तक प्रकृत प्राभूतप्राभृतसमास श्रुतज्ञान के विकल्प
ग्रहण में उपयोग के असम्भव होने से प्राभति का चलते हैं।
स्थापना दोष होता है। प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय-पाहुडपाहुडसमा
प्रामाण्य--१. प्रमाणस्य भावः अर्थपरिच्छेदिका ससुदणाणस्स जमावारय कम्म त पाहुडपाहुडसमासा- शक्तिः कर्म वा अर्थपरिच्छेदः प्रामाण्यम । (न्यायकु. वरणीयं । (धव. पु. १३, पृ. २७८)।
१-६, पृ. १६५)। २. इदमेव हि प्रमाणस्य प्रामाजो कर्म प्राभूतप्राभूतसमास श्रुतज्ञान का प्रावरण ण्यं यत्प्रमितिक्रियां प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम । करता है उसे प्राभूतप्राभृतसमासावरणीय कहते हैं। (प्रमाणनि. प.१)। ३. ज्ञानस्य प्रमेयाऽव्यभिचाप्रातिका-देखो प्राभृतदोष। १. प्रकरणस्य रित्वं प्रामाण्यम् । (प्र. न. त. १-१८) । ४. प्रमीयसाध्वर्थमुत्सर्पणमबसर्पणं वा प्राभृतिका। (प्राचा. माणार्थऽव्यभिचरणशीलत्वं यज् ज्ञानस्य तत् प्रामाशी. व. २, १, २६६, पृ. ३१७)। २. कालान्तर- ण्यम् । (रत्नाकरा. पृ. १-१६) । ५. किमिदं प्रमाभाविनो विवाहादेरिदानी सन्निहिताः साधवः सन्ति,
सान्त, णस्य प्रामाण्यम् नाम ? प्रतिभातविषयाव्यभिचारितेषामप्युपयोगे भवत्विति बुद्धया इदानीमेव करणं त्वम् । (न्यायदी. पृ. १४-१५) । समयपरिभाषया प्राभूतिका, सन्निकृष्टस्य विवाहादेः १ मीमांसक मत के अनसार प्रमाण के भाव कोकालान्तरे साधूसमागमनं संचिन्त्योत्कर्षणं वा ।
पदार्थ के जानने की शक्ति को-अथवा उसके
जानकीको (योगशा. स्वो. विव. १-३८, पृ. १३३) । ३. जाननेरूप कर्म को प्रामाण्य कहते हैं। २ प्रमिति यत्स्वनिमित्तमपि गही वतिनः प्राजिगमिषन् जिग- क्रिया के प्रति प्रतिशय साधक रूप से कारण होना, मिषन् वा ज्ञात्वा अर्वाक् परतो वा तदर्थमारभते यही प्रमाण का प्रामाण्य है। ३ ज्ञान का अपने तत्प्राभृतिका । (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. २०)। विषयभूत पदार्थ का व्यभिचारी (अन्यथा) न १ साध के निमित्त प्रकृत कार्य को बढ़ा लेना या
होना-पदार्थ यथार्थ में जैसा है उसी रूप से उसे सोता_ता
और घटा लेना, यह प्राभृतिका दोष है। २ कुछ काल के
जानना-इसका नाम प्रामाण्य या प्रमाणता है। पश्चात् होने वाले पुत्रविवाहादि की अपेक्षा साधुओं प्रामित्य (पामिच्च, पामिच्छ)-१. डहरिय का प्रागमन समीपवर्ती है, अतः उनके उपयोग में
रिणं तु भणियं पामिच्छं प्रोदणादिअण्णदरं । तं भी पा जावे, इस विचार से इसी समय विवाहादि पुण दुविहं भणिदं सवड्ढियमवड्ढियं चावि ।। का करना ठीक है, इस प्रकार समय के पूर्व में
(मूला. ६-१७) । २. पामिच्चं पि य दुविहं लोइय उनका करना; अथवा विवाहादि यदि समीपवर्ती
लोगुत्तरं समासेण । लोइय सझिलगाई लोगुत्तर हों और साधुओं का आगम पीछे होने वाला हो तो वत्थमाईस ॥ (पिण्डनि. ३१६) । ३. प्रामित्यं उक्त विचार से उनके समय को बढ़ा लेना; यह साध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणम् । (दशवै. सू. हरि. वृ. प्राभतिका नामक उत्पादनदोष कहलाता है।
५-५५, पृ. १७४) । ४. अल्पमृणं कृत्वा वृद्धिसहित प्राभतिकास्थापना- भिक्खागाही एगत्थ कुणइ अवृद्धिकं वा गृहीतं संयतेभ्यः पामिच्छमुच्यते । (भ. विइयो उ दोसु उवयोगं । तेण परं उक्खित्ता पाहु- प्रा. विजयो. २३०, कार्तिके. टी. ४४८-४६)।
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