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मापागता चूलिपा] ९०६, जैन-लक्षणावली
[मायाशल्य रखना, इसका नाम मायाक्रिया है।
वचन को प्रथवा उसके सभी कथन को मायानि:मायागता चूलिका-१. मायागया तेत्तिएहि चेय सृता असत्यभाषा कहा जाता है । पदेहि २०६८६२०० इदंजालं वण्णेदि। (धव. पु. मायापिण्ड-१. नानावेष-भाषापरिवर्तनं भिक्षार्थं १, पृ. ११३); मायागतायां द्विकोटि-नवशतसह- कुर्वतो मायापिण्डः। (योगशा. स्वो. विव. १-३८%) स्रकान्नवतिसहस्रद्विशतपदायां २०६८६२०० माया- धर्मसं. मान. स्वो. वृ. ३-२२, पृ. ४१) । २. एककरणहेतुविद्या-मंत्र-तंत्र-तपांसि निरूप्यन्ते । (धव. गृहाद् गृहीत्वा रूपान्तरं कृत्वा मायावशाद्यत्पुनर्ग्रहपु. ६, पृ. २१०)। २. मायागया पुण महिंदजालं णार्थं प्रविशति स मायापिण्डः । (गु.गु. षट्. स्वो. वण्णेदि। (जयघ. १, पृ. १३६)। ३. माया- व. २०, पृ. ४६)। गता इन्द्रजालादिक्रियाविशेषप्ररूपिका। (श्रुतभ. १ भिक्षा प्राप्त करने के लिए अनेक वेष व भाषा टी. ६)। ४. मायागता मायारूपेन्द्रजालविक्रिया- का परिवर्तन करने पर मायापिण्ड नामक दोष कारणमंत्र-तंत्र-तपश्चरणादीनि वर्णयति । (गो. जी. होता है। म. प्र ३६२) । ५. इन्द्रजालादिमायोत्पादकमन्त्र- मायाप्रत्यया क्रिया- माया अनार्जवमुपलक्षणतन्त्रादि निरूपिका पूर्वोक्त (द्विशताधिकनवाशीति- त्वात् क्रोधादेरपि परिग्रहः, माया ' प्रत्ययं कारणं सहस्र-नवलक्षाधिकद्विकोटि) पदप्रमाणा मायागता यस्याः सा मायाप्रत्यया । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २८४, चूलिका। (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। ६. माया- पृ. ४४७) । रूवमहेंदजाल विकिरियादिकारणगणस्स । मंत-तंत- माया का अर्थ ऋजुता का अभाव है, माया उपतयस्स य णिरूवगा कोदुयाकलिदा। (प्रंगप. ३-५, लक्षण है, अतः उससे क्रोधादि को ग्रहण करना पृ. ३०२)।
चाहिए । अभिप्राय यह है कि माया कषायादि के १ जिस में माया करने के कारणभूत विद्या, मंत्र, प्राश्रय से जो प्रवृत्ति की जाती है, उसे मायाप्रत्यया तंत्र और तप की प्ररूपणा की जाती है उसे माया- क्रिया कहते हैं। गता चलिका कहा जाता है।
मायामृषावाद - वेषान्तर भाषान्तरकरणेन यत्परमायाचार-देखो मायापिण्ड । अन्यादृष्टदो षि- __ वञ्चन तन्मायामृषावादः । (औपपा. अभय. व. गृहनं कृत्वा प्रकाशदोषनिवेदनं मायाचारस्तृतीयो ३४, पृ. ७६) । दोषः । (त. वा. ६, २२, २)।।
अन्य वेष व भाषा को करके जो दूसरों को धोखा १ जो दोष दूसरे के द्वारा नहीं देखे गये हैं उनको दिया जाता है इसे मायामषावाद कहते हैं। प्रगट न करके केवल प्रकाश में आए हुए दोषों का मायाशल्य-१. रागात् परकलत्रादिवाञ्छारूपम्, निवेदन करना, यह मायाचार नामक प्रालोचना का द्वेषात् परवध-बन्धच्छेदादिवाञ्छारूपं च मदीयापतीसरा दोष है।
ध्यानं कोऽपि न जानातीति मत्वा स्वशुद्धात्मभामाया नामक उत्पादनदोष-१. मायां कुटिल. वनासमुत्पन्नसदानन्दैकलक्षणसुखामृतरसनिर्मलजलेन भावं कृत्वा यद्यात्मनो भिक्षादिकमुत्पादयति तदा चित्तशुद्धिमकुर्वाणः सन्नयं जीवो बहिरङ्गवेषण मायानामोत्पादनदोषः । (मला. वृ. ६-३४)। यल्लोकरञ्जनं करोति तन्मायाशल्यम् । (ब. द्रव्य२. माययाऽन्नार्जनं माया। (भावप्रा. टी. ६६)। सं. टी. ४२)। २. परवंचनं मायाशल्यम् । (त. १ यदि कुटिलता करके अपने लिए भिक्षा उत्पन्न वृत्ति श्रुत. ७-१८, कार्तिके. टी. ३२६)।। की जाती है तो यह माया नाम का उत्पादनदोष १राग से परस्त्री प्रादि की इच्छारूप तथा द्वेष से होता है।
दूसरे जीवों के बध-बन्धन प्रादि रूप मेरे दुर्ध्यान मायानिःसृता असत्यभाषा -मायाइणिस्सिया को कोई नहीं जानता है, ऐसा समझकर जीव जो सा मायाविट्ठो कहेइ जं भासं। जह एसो देविदो अपने मन को शुद्धि न करके बाह्य बगलावेष द्वारा अहवा सव्वं पि तव्वयणं । (भाषार. ४३)। लोकानुरंजन किया करता है उसे मायाशल्य जानना जो (इन्द्रजालिक) मायाचार से युक्त होकर यह चाहिए । २ दूसरे को ठगना, इसी का नाम मायाकहता है कि 'यह इन्द्र है' उसके इस प्रकार के शल्य है।
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