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________________ भावकायोत्सर्ग] ८४२, जैन-लक्षणावली [भावजिन २ जो शरीररूप से परिणत पुद्गल जीव से दसपूर्वी, असम्पूर्णदसपूर्वी, संविग्न (उद्यत बिहारी), सम्बद्ध हैं उन्हें भावकाय कहते हैं । असंविग्न, सारूपिक (उस्तरे से मुण्डित सिर वाले भावकायोत्सर्ग-मिथ्यात्वाद्यतीचारशोधनाय भा- श्वेताम्बर), श्रावक, दर्शनश्रावक (अविरतसम्यवकायोत्सर्गः, कायोत्सर्गव्यावर्णनीयप्राभूतज्ञ उपयुक्त-ग्दष्टि) और जिनप्रतिमा; इन्हें सम्यग्दर्शन-ज्ञानसंज्ञानजीवप्रदेशो वा भावकायोत्सर्गः । (मूला. वृ. चारित्र की उत्पत्ति के कारण होने से भावग्राम ७-१५१)। कहा जाता है। मिथ्यात्वादिविषयक प्रतीचारों की शुद्धि के लिए भावचविशति-- भावचतुर्विशतिः चतुर्विंशतिजो कायोत्सर्ग किया जाता है उसे भावकायोत्सर्ग र्भावसंयोगाः चतुर्विशतिगुणकृष्णादिद्रव्यं वा भावकहते हैं, अथवा कायोत्नर्ग के प्ररूपक प्राभूत के चतुर्विशतिः । (प्राव. भा. मलय. वृ. १६२, पृ. ज्ञाता को भावकायोत्सर्ग जानना चाहिए। ५६०)। भावकाल-१. साई सपज्जवसिप्रो चउभंगवि- चौबीस भावसंयोगों को-भावों के संयोगी भंगों भागभावणा इत्थं । उदईआईआणं तं जाणसु भाव- को----भावचतुविशति कहते हैं। अथवा चौबीस गुण कालं तु ॥ (प्राव. नि. ७३२)। २. भावानामो- वाले कृष्णादि द्रव्य को भावचतुविशति जानना दयिकादीनां स्थिति वकालः। (प्राव. नि. हरि. वृ. चाहिए। ७३१)। ३. भवत्यौदयिकादीनां या भावानामवस्थि भावचपल-जं जं सुयमत्थो वा उद्दिठें तस्स 'तिः। सादि-सान्तादिभिर्भङ्गभावकालः स उच्यते। पारमपप्पत्तो । अन्नन्नसुय-दुमाणं, पल्लवगाही उ (लोकप्र. २८-१९४)। भावचलो ।। (बृहत्क. ७५५)। १ौदयिक प्रादि भावों में सादि-सपर्यवसान आदि आवश्यक या दशवकालिक प्रादि ग्रन्थ के जिस जिस (सादि-अपर्यवसान, अनादि-सपर्यवसान और अनादि सूत्र या अर्थ को प्रारम्भ किया गया है उस उस के अपर्यवसान) चार भंगों के विभाग की भावना के पार को प्राप्त न होकर अन्य अन्य प्राचारादि विषयभत काल को भावकाल जानना चाहिए। श्रतरूप वक्षों के पल्लवों के—उनके मध्यवर्ती २ प्रौदयिक आदि भावों की स्थिति को भावकाल पालापक, श्लोक या गाथा प्रादि रूप लेश मात्र कहते हैं। श्रुत वप्रर्थ के---ग्रहण करने वाले को भावचपल भावक्रीत--विद्या-मन्त्रादिदानेन वा क्रीतं भाव कहते हैं। क्रीतम् । (भ. प्रा. विजयो. २३०, कातिके. टी. भावचरण---भावचरणं गुणानां चरणम् । (उत्तरा. ४४८-४६) । विद्या व मन्त्र आदि देकर जो स्थान प्राप्त किया ५.2 चू. पृ. २३६) जाता है वह भावक्रीत दोष से दूषित होता है, कारण गुणों के प्राचरण का नाम भावचरण है। कि वह साधु के लिए अग्राह्य होता है। भावचारित्र- देखो भावसम्यक्चारित्र । भावक्षपणा-अविहं कम्मरयं पोराणं जं खवेइ भावजिन-१. जिणसरूवपरिच्छेदिणाणपरिणदो जोगेहिं । एयं भावज्झयणं णेयव्वं आणुपुव्वीए ॥ . उवजुत्तभावजिणो। जिणपज्जायपरिणदो तप्परि. (उत्तरा. नि. ११)। णयभावजिणो । (धव. पु. ६, पृ. ८) । २. xx जीव योगों के द्वारा-भावाध्ययनविषयक चिन्तन र भावजिणा समवसरणत्था ।। (चैत्यव. भा. दे. मादिरूप शुभ व्यापार के द्वारा–चूंकि पूर्वसंचित वृ, ५१)।। कर्मरूप धूलि को नष्ट करता है, इसीलिए उस १ उपयुक्त और तत्परिणत के भेद से नोमागम भावाध्ययन को भावक्षपणा कहा जाता है। भावजिन दो प्रकार के हैं। इनमें जिनस्वरूप के भावग्राम-तित्थगरा जिण चउदस, दस भिन्ने । ज्ञापक ज्ञान से परिणत जिन उपयुक्त भावजिन संविग्ग तह असंविग्गे। सारूविय वय दंसण, पडि- कहलाते हैं। तथा जिनपर्याय से परिणत तत्परिणत माओ भावगामो उ ॥ (बृहत्क. १११४)। भावजिन कहलाते हैं। २ समवसरण में स्थित केवली तीर्थकर, जिन (सामान्य केवली), चतुर्दशपूर्वी, जिनों को भावजिन कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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