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रोग परीषहजय ]
क्षय, कोढ़ और ज्वर आदि का नाम रोग है । रोगपरीषहजय - १. सर्वाशुचिनिधानमिदम नित्यमपरित्राणमिति शरीरे निःसङ्कल्पत्वाद्विगतसंस्कारस्य गुणरत्नभाण्डसञ्चयप्रवर्धन संरक्षण-संधारणकारणत्वादभ्युपगत स्थिति विधानस्याक्षम्रक्षणवद् व्रणानुलेपनवद्वा बहूपकारमाहारमभ्युपगच्छतो विरुद्धाहार पान सेवन वैषम्यजनितवातादिविकाररोगस्य युगपदनेकशतसंख्यव्याधिप्रकोपे सत्यपि तद्वशवर्तितां विजहतो जल्लोषधिप्राप्त्याद्यनेकतपोविशेषद्धियोगे सत्यपि शरीरनिःस्पृहत्वात्तत्प्रतिकारानपेक्षिणो रोगपरिषह सहनमवगन्तव्यम् । ( स. सि. ६-६ ) । २. नानाव्याघिप्रतीकारानपेक्षत्वं रोगसहनम् । दुःखादिकारणमशुचिभाजनं जीर्णवस्त्रवत् परिहेयं पित्त-मारुत-कफसन्निपातनिमित्ताने कामयवेदनाभ्यदितमन्यदीयमिव विग्रहं मन्यमानस्य उपेक्षितृत्वाप्रच्युतेश्चिकित्साव्यावृत्तचेष्टस्य शरीरयात्राप्रसिद्धये व्रणालेपनवद्यथोक्तमाहारमाचरतो जल्लोषधिप्राप्त्याद्यने कतपोविशेषद्धि योगे सत्यपि शरीरनिःस्पृहत्वात्प्रतीकारानपेक्षिणः पूर्वकृतपापकर्मणः फलमिदमनेनोपायेनानुणीभवामीति चिन्तयतो रोगसहनं सम्पद्यते । (त. वा. &, ६, २१) । ३. रोगःज्वरातिसार-कास- श्वासादिः, तस्य प्रादुर्भावे सत्यपि न गच्छनिर्गताश्चिकित्सायां प्रवर्तन्ते, गच्छ्वासिनस्त्वल्प - बहुत्वालोचनया सम्यक् सहन्ते, प्रवचनोक्तविधिना प्रतिक्रियामाचरन्तीति, एवमनुष्ठिता रोगपरीषहजयः कृतो भवति । (प्राव. सू. प्र. ४, हरि. वृ. पू. ६५७ ) । ४. नानाव्याधिप्रतीकारानपेक्षत्वं रोगसहनम् । (त. इलो. १-९) । ५. कंडू या गलगंडपांडुदवथुग्रन्थिज्वरश्लीपदश्लेष्मोदुंबर कुष्ठपवनश्वासादिरोगादितः । भिक्षुः क्षीणब लोऽपि भेषजसुहृन्मं त्रानपेक्षः क्षमी दु:कर्मारिविनिमिताऽऽतिविजयी स्याद् व्याधिबाधाजयः ॥ ( प्राचा. सा. ७–१०) । ६. तपोमहिम्ना सहसा चिकित्सितुं शक्तोऽपि रोगानतिदुस्सहानपि । दुरन्तपापान्तविधित्या सुधीः स्वस्थोऽधिकुर्वीत सनत्कुमारवत् ॥ (अन. घ. ७-१०४) । ७. स्वशरीरमन्यशरीरमिव मन्यमानस्य शरीरयात्राप्रसिद्धये व्रणलेपवदाहारमा चरतो जल्लोषधाद्यनेकतपोविशेषद्धियोगेऽपि शरीरनिःस्पृहत्वात् व्याधिप्रतीकारानपेक्षिण: [ पूर्वकृतपापकर्मणः]फलमिदमनेनोपायेनानुणी भवामीति विन्तयतो रोग सहनम् । (प्रारा. सा. टी. ४० ) ।
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[ रौद्र
१ यह शरीर अपवित्रता का स्थान, श्रनित्य श्रौर रक्षा से रहित ( अरक्षणीय) है । परन्तु वह सम्यक्त्वादि गुणों का पात्र ( डिब्बा) है, अतः उनके संचय के बढ़ाने, रक्षण व धारण करने का कारण होने से उसको स्थिर रखने के लिए आहार की आवश्यकता इस प्रकार रहती है जिस प्रकार कि गाड़ी के पहिए की कील के लिए श्रोंगन प्रथवा घाव के लिए मलहम के लेपन को श्रावश्यकता रहती है । यह अवश्य है कि वह शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्राप्त होना चाहिए, यदि विरुद्ध श्राहारपानादि के सेवन से रोगादि विकार हुए हैं तो उनके अधीन न होकर औषधिऋद्धि श्रादि के होते हुए भी उनसे प्रतीकार की अपेक्षा न कर रोगों को निराकुलतापूर्वक सहना, इसका नाम रोगपरीषहसहन या रोगपरीषहजय है । ३ ज्वर, अतिसार, कास और श्वास प्रादि रोगों के उत्पन्न होने पर भी गच्छ से निकल कर उनकी चिकित्सा में प्रवृत्त न होना, किन्तु गच्छ में रहते हुए होनाधिकता के विचारपूर्वक उन्हें सहन करना तथा प्रागमोक्त विधि से उनका प्रतीकार करना, इसे रोगपरीषहजय कहा जाता है।
६६३, जैन - लक्षणावली
रोगपरोषहसहन – देखो रोगपरीषहजय । रोग सहन - देखो रोगपरीषहजय । रोचक सम्यक्त्व - १. रोयगसम्मत्तं पुण रुइमित्तकरं मुणेयव्वं ॥ (श्रा. प्र. ४६ ) । २. तत्र श्रुतोक्ततत्त्वेषु हेतुदाहरणैविना । दृढा या प्रत्ययोत्पत्तिस्तद्रोचकमुदीरितम् ॥ (त्रि. श. पु. च. १, ३, ६०९ ) । १ जो सम्यक्त्व जिनप्ररूपित तत्त्वों पर रुचि मात्र को उत्पन्न करने वाला है उसे रोचकसम्यक्त्व कहते हैं ।
रोधनप्रन्तराय - XXX रोधनं तु स्यान्मा भुङ्क्ष्वेति निषेधनम् ॥ ( अन. घ. ५ - ४४) । 'मत खाओ' इस प्रकार धारणक ( धरना देने वाला) आदि के द्वारा रोकने पर रोधन नाम का अन्तराय होता है ।
रोष - क्रोधनस्य पुंसस्तीव्रपरिणामो रोषः । (नि. सा. वृ. ६) ।
क्रोधी पुरुष की तीव्र परिणति का नाम रोष है । रौद्र - १. तेणिक्क - मोस-सारक्खणेसु तह चेव छत्रिहारंभे । रुद्द कसायसहियं झाणं भणियं समासेण ॥
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