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श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रह]
जनों की संगति नहीं करता है तथा सब जीवों का हित चाहता है उसे श्रोत्रिय कहना चाहिए। बाहरी शौच से युक्त को श्रोत्रिय नहीं कहा जा सकता । श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रह सणिपंचिदियपज्जत्तएसु
१०७४, जैन - लक्षणावली क्ष्णिका होती है।
जवणालिय संठाणसंठिदसोदिदियप्रत्थोग्गहविसोबा - रहजोयणाणि १२ । असणिपंचिदियपज्जत्तए सु घणुसहस्साणि ८०००। एत्तियमद्वाणमंत रियट्ठि दसग्गहणं सोदिदियप्रत्थोग्गहो णाम । (धव. पु. १३, पृ. २२७) ।
यवनाली के प्रकार में स्थित श्रोत्र इन्द्रिय के श्राश्रय से होने वाला प्रर्थावग्रह संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में उत्कृष्ट बारह योजन प्रमाण तथा श्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में प्राठ हजार धनुष प्रमाण क्षेत्र को विषय करता है । इतने क्षेत्र के मध्य में स्थित शब्दों का जो ग्रहण होता है उसका नाम श्रोत्रइन्द्रियर्थावग्रह है । श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहावरणीय - एदस्स ( सोदिदियत्थोग्गहस्स) जमावारयं कम्मं तं सोदिदियप्रत्थोगावरणीयं । ( धव. पु. १३, पृ. २२७ ) जो कर्म श्रोत्र- इन्द्रिय- श्रर्थावग्रह को प्राच्छादित करता है उसे श्रोत्र - इन्द्रिय- श्रर्थावग्रहावरणीय कहते हैं ।
श्रोत्रेन्द्रिये हाज्ञान- सोदिदिएण गहिदसद्दो कि णिच्चो प्रणिच्चो दुस्सहाम्रो किमदुस्सहावो त्ति चदुष्णं विप्पाणं मज्भे एगवियप्पस्स लिंगगवेसणं सोदिदियगदहा । ( धव. पु. १३, पृ. २३१ ) । श्रोत्र इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण किया गया शब्द क्या नित्य है, क्या अनित्य है, क्या द्विस्वभाव (नित्य व प्रनित्य - उभय) है, अथवा अद्विस्वभाव ( न नित्य न प्रनित्य ) है इन चार विकल्पों में से किसी एक विकल्प के हेतु के अन्वेषण करने वाले ज्ञान को श्रोत्र- इन्द्रिय-ईहाज्ञान कहा जाता है । श्रोत्रेन्द्रिये हाज्ञानावरणीय - तिस्से आवारयं कम्मं सोदियावरणीयं । ( धव. पु. १३, पृ. २३१) । जो कर्म श्रोत्र- इन्द्रिय-ईहाज्ञान को प्राच्छादित करता है उसे श्रोत्रेन्द्रियेाज्ञानावरणीय कहते हैं । श्लक्ष्ण- श्लक्ष्णिका ( सण्ह -सहिया ) - श्रट्टउस्सह- सहिाम्रो साएगा सह- सहिया । ( जम्बूही. १६, पृ. ९२) ।
झाठ उच्छ्लक्ष्ण- इलक्ष्णिकाओं की एक श्लक्ष्ण- इल
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[ श्वेतसिद्धार्थ
श्लेषार्द्र - तथा श्लेषाद्रं वज्रलेपाद्युपलिप्तं स्तम्भकुड्यादिकं यद् द्रव्यं तत् स्निग्धाकारतया श्लेषार्द्रमित्यभिधीयते । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. २, ६, १८५, पृ. १३६) ।
स्तम्भ व भित्ति आदि जो द्रव्य वज्रलेप श्रादि से लिप्त होते हैं उन्हें स्निग्ध प्राकार होने से इलेषार्द्र कहा जाता है !
श्वभ्रपूरण - १. येन केनचित्प्रकारेण स्व [श्व ] भ्र पूरणवदुदरगर्त्तमनगारः पूरयति स्वादुनेतरेण आहारेण वेति स्वभ्रपूरणमिति च निरुच्यते । (त. वा. ६, ६, १६; त. इलो. ६-६; चा. सा. पृ. ३६ ) । २. श्वस्य गर्त्तस्य येन केनचित्कचारेणेव स्वादुनेत - रेण वाहारेणोदरगर्तस्य पूरणात् श्वभ्रपूरणमित्याख्यायते । ( श्रन. ध. स्व. टी. ६-४९ ) ।
१ जिस प्रकार जिस किसी भी प्रकार से गडढे को भरा जाता है उसी प्रकार से साधु अपने पेट रूप गड्ढे को कचरे के समान स्वादिष्ट प्रथवा स्वादहीन भोजन से भरा करता है, इसीलिए उसे श्वभ्रजैसे सार्थक नाम से कहा जाता है। पूरण श्वास --- बाह्यस्य वायोराचमनं श्वास: । (योगशा स्वो विव. ५-४ ) ।
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बाहिरी वायु के श्राचमन को - नाक या मुंह के द्वारा उदर में पहुंचाने को — श्वास कहा जाता है। श्वेतवर्णनामकर्म- • तत्र यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु श्वेतवर्णप्रादुर्भावो यथा विशकण्ठिकानां ततः श्वेतवर्णनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३) । जिसके उदय से प्राणियों के शरीर में श्वेत वर्ण उत्पन्न होता है, जैसे विशकण्ठिकों के, उसे श्वेतवर्णनामकर्म कहते हैं ।
श्वेतसर्षप - चत्वारि महिधिकतृणफलानि श्वेतसर्षप एकः । (त. वा. ३, ३८, ३) । चार महिधिका तृणफलों का एक श्वेतसर्षप होता है ।
श्वेत सिद्धार्थ - १. XXX टूहि चिहुर गर्हि, सियसिद्धत्थु कहिउ णिहुयक्खहि । (म. पु. पुष्प. २, ७, पृ. २४) । २. भ्रष्टभिलक्षाभिः पिण्डिताभिरेकः श्वेतसिद्धार्थः । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३८ ) । १ माठ चिकुरानों (बालानों) का एक श्वेतसिद्धार्थ
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