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वनस्पति] ६८१, जैन-लक्षणावली
[वन्दना पेषणेन दलनेन वर्तनम् । (सा. घ. स्वो. टी. को शरीररूप से ग्रहण नहीं करता है उसे वनस्पति५-२१)।
जीव कहा जाता है। १ वन को खरीदकर पीछे वृक्षों को काटना और वनिताकथा-स्त्रीणां कथाः-स्वरूपास्ताः सौभावेचना, इसे वनजीविका कहा जाता है। २ कटे या ग्ययुक्ता मनोरमा उपचारप्रवणा: कोमलालापा इत्येविना कटे वन के पत्तों, फलों और फलों को वेचकर वमादिकथनं वनिताकथाः। (मला. व. 8-८९)। तथा धान्य को दलकर व पीसकर आजीविका वे स्त्रियां सुन्दर, सौभाग्यशालिनी, चित्ताकर्षक, व्यचलाना, इसे वनजीविका कहते हैं।
वहार में कुशल और कोमल वचनालाप करने वाली वनस्पति-देखो वनस्पतिकायिक ।
हैं; इत्यादि प्रकार से स्त्रियों के विषय में चर्चा वनस्पतिकायिक-१. वनस्पतिः कायः येषां ते करना, इसे वनिताकथा कहा जाता है। वनस्पतिकायाः, बनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायि- वनीपकवचन-देखो वणिगवावसति। १. साणकाः। Xxx वणप्फदिणामकम्मोदया जीवा किविणतिधि-माहण-पासंडिय-सवण-कागदाणादी । विगहगईए वट्टमाणा वि वणप्फदिकाइया भवंति । (धव. पु. ३, पृ. ३५७)। २. उदये दु वणफ्फदि- ६-३२) । २. xxx तद् वनीपकं वचनं दानकम्मस्स य जीवा वणफ्फदी होति । (गो. जी. १८५)। पत्यनुकलवचनं प्रतिपाद्य यदि भुञ्जीत तदा तस्य ३ स्थावरनामकर्मोत्तरप्रकृतिभेदस्य वनस्पतिनाम- वनीपकनामोत्पादनदोषः. दीनत्वादिदोषदर्शनादिति । कर्मण उदये सति, तु पूनः, जीवा वनस्पतिकायिका (मला. वृ. ६-३२)। ३. श्रमण-ब्राह्मण-क्षपणाभवन्ति । (गो. जी. मं. प्र. १८५)। ४. वनस्पति- तिथि-श्वानादिभक्तानां पुरतः पिण्डार्थमात्मानं तत्तविशिष्टस्थावरनामकर्मोत्तरप्रकृत्युदये, तु पुनः, दुक्तं दर्शयतो वनीपकपिण्डः । (योगशा. स्वो. विव. जीवा वनस्पतिकायिका भवन्ति । (गो. जी. जी. प्र. १-३८)। ४. वनीपकीभूय पिण्डः उत्पाद्यते स १८५)। ५. सार्द्रः छिन्नो भिन्नो मदितो वा पिण्डोऽपि वनीपकः। (व्यव. भा. मलय.. तु. उ. लतादिर्वनस्पतिरुच्यते। शुष्कादिर्वनस्पतिवनस्पति- पृ. ३५)। ५. दातुः पुण्यं श्वादिदानादस्त्येवेकायः । जीवसहितो वृक्षादिर्वनस्पतिकायिकः । त्यनुवत्तिवाक् । वनीपकोक्तिः xxx॥ (अन. विग्रहगतो सत्यां वनस्पतिर्जीवः वनस्पतिजीवो घ.५-२२) । भण्यते । (त. वृत्ति धुत.२-१३)।
१ कुत्ता, कृपण-कोढ़ प्रादि रोग से पीडित, १ जिनका शरीर बनस्पति हुमा करता है उन्हें अतिथि (भिक्ष), मांसावि भक्षी ब्राह्मण, पाखण्डी वनस्पतिकाय या वनस्पतिकायिक कहा जाता है। (वेषधारी) श्रमण-प्राजीवक अथवा छात्र और वनस्पतिनामकर्म के उदय से विग्रहगति में बर्तमान कौवा; इनको दिये जाने वाले दान प्रादि से पुण्य भी जीव वनस्पतिकायिक होते हैं। ५ छेवी-भेदी गई होता है अथवा नहीं, इस प्रकार पूछे जाने पर यदि अथवा मर्दित सार्द्र लता प्रादि को बनस्पतिकाय कहा उत्तर में यह कहा जाता है कि 'हां, उससे पुण्य जाता है। सजीव वृक्ष प्रादि को वनस्पतिकायिक होता है तो वह वनीपकवचन होता है। इसका कहते हैं । विग्रहगति में वर्तमान वनस्पति जीव का कारण यह है कि वैसे अनुकूल वचन से सन्तुष्ट नाम वनस्पतिजीव है।
होकर दाता दान देने में प्रवृत्त होता है। यह १६ वनस्पतिजीव-१. एवमबादिष्वपि योज्यम् (सम- उत्पादनदोषों में पांचवां है । ४ वनीपक (भिखारी) वाप्तवनस्पतिकायनामकर्मोदय: कार्मणकाययोगस्थो होकर जो भोजन उत्पन्न किया जाता है वह वनीन तावद् वनस्पति कायत्वेन गृह्णाति स वनस्प- पकपिण्ड कहलाता है। तिजीवः) । (स. सि. २-१३) । २. (एवं पृथिवी- वन्दना-१. अरहंत-सिद्धपडिमा तव-सुद-गुणगुरुजीववत्) xxx वनस्पतिजीवः (सर्वार्थसि- गुरूण रादीणं । किदि यम्मेणिदरेण य तियरणसंकोचद्धिवत्) । (त. वा. २, १३, १)।
गं पणमो॥ (मूला. १-२५)। २. वन्दना त्रि१ जो जीव वनस्पतिकाय नामकर्म के उदय से युक्त शुद्धिः द्वधासना चतुःशिरोऽवनतिः द्वादशावर्तना। होता हुया कामगकाययोग में स्थित होकर वनस्पति (स.वा. ६, २४, ११; चा. मा. पृ. २६) । ३.
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