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प्रकाशकीय
"जैन लक्षणाबली" जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का प्रकाशन इस युग की एक अभूतपूर्व घटना है। ग्रन्थ के पूर्ण हो जाने पर अब उसके इस अन्तिम तृतीय भाग को पाठकों के सन्मुख प्रस्तुत करते हुए ‘बीर सेवा मन्दिर" गौरव का अनुभव करता है। ग्रन्थ की उपयोगिता व महत्त्व पर अयत्र प्रकाश डाला गया है । उससे यह स्पष्ट है कि इस तरह का ग्रन्थ न तो अब तक छपा है और न निकट भविष्य में उसके छपने की कुछ सम्भावना ही है ।
ग्रन्थ के सकलन, सम्पादन, मद्रण इत्यादि में जिन विद्वानों, सोसायटी के अधिकारियों व अन्य महानुभावों का किसी भी रूप में योगदान रहा उन का उल्लेख प्रथम व द्वितीय भाग में किया जा चुका है। सोसायटी की ओर से मैं उन सबका पुनः आभार मानता है। प्रमुख रूप में ग्रन्थ के संयोजन' सम्पादन, मुद्रण व प्रकाशन में जिन चार महानुभावों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है वे इस प्रकार हैं--
१. स्व. श्री प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार—यद्यपि ग्रन्थ की मूल परिकल्पना मुख्तार साहब की थी तथा इसकी रचना में वही मूल प्रेरणा-स्रोत थे तथापि उनके जीवनकाल में ग्रन्थ से सम्बन्धित सामग्री व्यवस्थित नहीं हो सकी थी। इसके लिए यद्यपि समय-समय पर कई विद्वानों का सहयोग भी प्राप्त हुना, फिर भी वह संकलित सामग्री अव्यवस्थित ही रही दिखती है उसमें एकरूपता नहीं रही तथा सम्भवतः त्रुटियां भी अधिक रहीं।
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