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बाह्य परमशुक्लध्यान ]
बाह्य परमशुक्लध्यान - गात्र नेत्रपरिस्पन्दविर - हितं जम्भ - जृम्भोद्गारादिवर्जितमनभिव्यक्तप्राणापान प्रचारत्वमुच्छिन्नप्राणापानप्रचारत्वमपराजितत्वं बा `ह्यम्, तदनुमेयं परेषाम् । (चा. सा. पृ. ६०-६१ ) । जो शुक्लध्यान शरीर व नेत्रों के हलन चलन से रहित होकर जंभाई और डकार के शब्द आदि से हीन होता है, तथा जिसमें श्वासोच्छ्वास की क्रिया प्रगट न होकर नष्ट हो जाती हैं ऐसे पराजय से रहित ध्यान को बाह्य परमशुक्लध्यान कहा जाता है ।
बाह्य योग -- लेसा कसायवेयण - वेश्रो अन्नाणमिच्छ मीसं च । जावइया दइया सव्वो सो बाहिरो जोगो ॥ (उत्तरा. नि. ५२ ) । लेश्या, कषाय, साता प्रसातारूप वेदना, पुरुषादि की अभिलाषारूप वेद, श्रज्ञान, मिथ्यात्व और मिश्र-शुद्ध - अशुद्ध पुद्गलप्रदेशरूप सम्यग्मिथ्यात्व; इत्यादि जितने भी श्रदयिक परिणाम हैं उन सबको बाह्य योग - बाह्यापित सम्बन्धरूप संयोग - कहा जाता है ।
८२१, जैन-लक्षणावली
बाह्य वीर्याचार - बाह्यशक्त्यनवगूहनरूपो बाह्यवीर्याचारः । (परमा वृ. १-७) । बाहिरी शक्ति को न छिपाना, इसे बाह्य वीर्याचार कहा जाता है ।
बाह्य व्युत्सर्ग- देखो बाह्य उपधिव्युत्सर्ग । तत्र बाह्य द्वादशादिभेदस्यो पधेरतिरिक्तस्य अनेषणीयस्य -संसक्तस्य वा ऽन्न-पानादेर्वा त्यागः । (योगशा. स्वो. विव. ४–६०, पृ. ३१४ ) ।
बारह आदि भेदभूत उपधि को छोड़कर अन्य जो सम्बद्ध प्रनेषणीय - साधु के लिए अग्राह्य है उसका अथवा अन्न-पानादि हैं उनके त्याग को -बाह्य व्युत्सर्ग कहते हैं ।
बाह्य सल्लेखना - 1- १. Xxx बाहिरा होदि हु सरीरे ॥ (भ. आ. २०६ ) । २. बाह्या भवति सल्लेखना शरीरविषया। (भ. श्री. विजयो. २०६ ) । ३. सत् सम्यक् लेखना कायस्य कषायाणां च कुशी करणं तनूकरणं सल्लेखना, कायस्य सल्लेखना बाह्य सल्लेखना । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - २२ ) । १ शरीरविषयक सल्लेखना को — उसके कृश करने -को- बाह्य सल्लेखना कहते हैं ।
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[बिलस्थगन बिडालीसमान शिष्य- यथा बिडाली भाजनसंस्थं क्षीरं भूमौ विनिपात्य पिवति, तथा दुष्टस्वभावत्वात् शिष्योऽपि यो विनयकरणादिभीततया न साक्षात् गुरुसमीपे गत्वा शृणोति, किन्तु व्याख्यानादुत्थितेभ्यः केभ्यश्चित् स बिडालीसमानः स चायो - ग्य: । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १३६, पृ. १४४) । जैसे बिल्ली अपने वैसे स्वभाव के कारण पात्र में रखे हुए दूध को भूमि पर गिरा करके पीती है उसी प्रकार से जो शिष्य विनयादि करने के भय से प्रत्यक्ष में गुरु के समीप जा करके धर्मोपदेश नहीं सुनता है, किन्तु व्याख्यान से उठ कर श्राये हुए किन्हीं दूसरों से उसे सुनता है, उसे बिडाली समान शिष्य कहते हैं। ऐसा शिष्य योग्य नहीं माना
जाता ।
बिभ्यद्वन्दन- - १. गुर्वादिभ्यो बिभ्यतो भयं प्राप्नुवतः परमार्थात् परस्य बालस्वरूपस्य वन्दनाभिधानं बिभ्यद्दोष: । (मूला. वृ. ७–१०७) । २. बिभ्यतः सङ्घात् कुलात् गच्छात् क्षेत्राद्वा निष्कासयिष्येऽहमिति भयाद् वन्दनम् । (योगशा. स्वो विव. ३-१३०, पृ. २३६) । ३. XX X बिभ्यत्ता बिभ्यतो गुरोः ॥ ( अन. घ. ८-१०२ ) ।
१ गुरु आदि से भय को प्राप्त होकर परमार्थ से बाह्यभूत बालस्वरूप की वन्दना करने पर वन्दनाविare विभ्यत् नामके दोषसे लिप्त होता है । २ संघ, कुल, गच्छ अथवा क्षेत्र से मुझे निकाल देंगे; इस प्रकार के भय से वन्दना करना, यह वन्दना का विभ्यत् नामक दोष है । ३ गुरु से भयभीत होकर जो वन्दना करता है वह बन्दनाविषयक बिभ्यत्ता (बिभ्यत्व ) दोष का भागी होता है । बिम्बमुद्रा - पद्ममुद्रेव प्रसारिताङ्गुष्ठसंलग्नमघ्य माङ्गल्यग्रा बिम्बमुद्रा । ( निर्वाणक पृ. ३३) । पद्ममुद्रा के समान अंगुष्ठ को पसारकर उससे मध्यमा अंगुली के अग्रभाग के संलग्न करने को बिम्बमुद्रा कहते हैं । बिलस्थगन बिलस्थगनं कोलादिकृत बिलेष्विseकाशकलादि प्रक्षिप्योपरि गोमय मृत्तिकादिना विधानम् । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ४-२७)। चूहों आदि के द्वारा किये गये बिलों में ईंट के दुकड़ों प्रादि को भरकर ऊपर से गोबर या मिट्टी आदि से ढक देना, यह बिलस्थगन कहलाता है ।
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