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प्रस्तावना
स्थापनाकर्म- जैनागमों में विवक्षित पदार्थ की प्ररूपणा नय व निक्षेप के प्राधार से की गई है । प्रकृत में कर्म की विवक्षा है । वह नाम, स्थापना, द्रव्य और भाब के भेद से चार प्रकार का है । इनमें स्थापनाकर्म के स्वरूप का विचार करते हुए षट्खण्डागम ( ५, ४, ११-१२ – पु. १३, पृ. ४१ ) में कहा गया है कि काष्ठक, चित्रकर्म, पोत्तकर्म, लेप्यकर्म, लयनकर्म, शैलकर्म, गृहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म अथवा भेण्ड कर्म; इनमें तथा अक्ष अथवा वराटक इत्यादि अन्य भी जो हैं उनमें स्थापना के द्वारा जो 'यह कर्म है' इस प्रकार से स्थापना की जाती है वह सब स्थापनाकर्म कहलाता है । इस प्रकार की विवेचनपद्धति को स्थापनानन्त, स्थापनाकृति, स्थापनाप्रकृति और स्थापनास्पर्श आदि शब्दों के अन्तर्गत भी देखा जा सकता है ।
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यह विवेचन की पद्धति श्रावश्यकसूत्र में भी देखी जाती है । उदाहरण के रूप में स्थापनावश्यक के स्वरूप का विचार करते हुए वहां (सू. १०) कहा गया है कि काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म, लेप्यकर्म, ग्रन्थिम, वेढिम, पूरिम अथवा संघातिम, अक्ष अथवा वराटक में जो 'यह आवश्यक हैं' इस प्रकार से सद्भाव रूप, (तदाकार) अथव(असद्भाव रूप ( प्रतदाकार ) एक या अनेक की स्थापना की जाती है उसे स्थापनावश्यक कहते हैं । (सद्भावस्थापना और प्रसद्भाव स्थापना के लिए देखिये धवला पु. १३, पृ. १० और ४२ प्रादि तथा ग्रन्थिम व वेढिम प्रादि के लिए देखिये धवला पु. ६, पृ. २७२-७३ प्रादि) ।
स्थावर – पीछे (पृ. ५-६ ) ' तस' के प्रसंग में तस जीवों के स्वरूप व भेद आदि के विषय में विचार किया जा चुका है। प्रस्तुत स्थावर उक्त बस का विपक्षभूत है । सर्वार्थसिद्धि (२-१२) में स्थावर जीवों के स्वरूप का विचार करते हुए कहा गया है कि जो जीव स्थावर नामकर्म के वशीभूत होते हैं वे स्थावर कहलाते हैं । त. वार्तिक ( २,१२,३ ) और त. श्लो. वार्तिक ( २-१२ ) के अनुसार जिन जीवों के जीवविपाकी स्थावर नामकर्म के उदय से विशेषता उत्पन्न हुई है उन्हें स्थावर कहा जाता है । जो जीव स्वभावतः एक स्थान पर रहते हैं उन्हें स्थावर कहना चाहिए, इस शंका का समाधान करते हुए पूर्वोक्त स. सि. में कहा गया है कि वैसा मानने पर आगम में जो यह कहा गया है कि 'कायानुवाद से द्वीन्द्रिय से लेकर प्रयोगिकेवलिय तक त्रस जीव होते हैं उससे विरोध का प्रसंग प्राप्त होगा । त. वार्तिक ( २,१२, ४-५) में भी स्थानशील - एक ही स्थान में स्थित रहने वाले - जीवों को स्थावर क्यों न माना जाय, इस शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि वैसा स्वीकार करने पर वायु, तेज एवं जलकायिक जीवों के अस्थावरत्व — स्थावरभिन्न बसता - का प्रसंग दुर्निवार होगा, क्योंकि उनका गमन एक स्थान से दूसरे स्थान में देखा जाता है । यदि कहा जाय कि वह तो अभीष्ट ही है, तो वैसा कहने वालों के प्रति यह कहा गया है कि उन्होंने समय के अर्थ को नहीं समझा, क्योंकि सत्प्ररूपणा में कायानुवाद के प्रसंग में द्वीन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवलों पर्यन्त जीवों को तस कहा गया है । ऊपर स. सि. में जिस आगम की ओर तथा त. वा. में जिस सत्प्ररूपणासूत्र की ओर संकेत किया गया है वह सूत्र इस प्रकार है
तसकाइया बीइं दियrपहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति । षट्खं. १, १, ४४ ( पु. १, पृ. २७५ ).
इस सूत्र की व्याख्या करते हुए धवला टीका में 'स्थावर जीव कौन हैं' ऐसा पूछने पर एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर कहा गया है। इस पर वहां (पृ. २७६) यह शंका उठाई गई है कि सूत्र में तो ऐसा निर्देश नहीं किया गया, फिर यह कैसे जाना जाता है कि एकेन्द्रिय जीव स्थावर है ? इसके उत्तर में बहां यह कहा गया है कि उक्त सूत्र में जब यह स्पष्ट निर्देश किया गया है कि द्वीन्द्रिय से लेकर अयोगिकेवली तक त्रस हैं, तब परिशेष से यह स्वयं सिद्ध है कि एकेन्द्रिय जीव स्थावर हैं । इसपर आगे स्थावर नामकर्म का क्या कार्य है, ऐसा पूछने पर यह कहा गया है कि उसका कार्य एक स्थान में अवस्थापित करने का है । इस पर यह शंका उपस्थित हुई कि वैसा होने पर तो तेज, वायु और जल इन चलने वाले स्थावर जीवों के स्थावरपने का प्रभाव प्राप्त होगा ? इस शंका के समाधान में कहा गया है कि ऐसा नहीं हो सकता । इसका कारण यह है कि जिस प्रकार स्थिर पत्ते प्रयोग से - वायु की प्रेरणा से - वृक्ष से टूटने पर इधरउधर चलते हैं उसी प्रकार स्थिर तेज और जल जीव भी प्रयोग के वश चलते हैं, न कि स्वतः अतएव उनके मन में कोई विरोध नहीं है । इनके अतिरिक्त गति पर्याय से परिणत वायु का तो शरीर ही वैसा है ।
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