________________
विनयशुद्धि]
यथा पूजाप्रवणा ज्ञानादिषु च यथाविधि भक्तियुक्तता गुरोः सर्वत्रानुकूलवृत्तिः प्रश्न- स्वाध्याय वाचना- कथाविज्ञत्यादिषु प्रतिपत्ति कुशला देश-काल- भावावबोधनिपुणा प्राचार्यानुमतचारिणी (त. श्लो. 'सदाचार्यमतानुचारिणी') । (त. वा. ६, ६, १६; त. इलो. ६-६; चा. सा. पृ. ३४ ) । २. कुलद्धि-जातिरूपाज्ञा-तपोज्ञान-बलोद्भवः । मर्दविहीना विनये शुद्धिः सद्गुणसन्नतिः ॥ ( श्राचा. सा. ६-६६) । ३. द्विनति द्वादशावर्त शिरोनतिचतुष्टये । तत्र योSनादराभावः सस्याद्विनयशुद्धिका ॥ ( धर्मसं. श्री. ७-५१) ।
१००५, जैन-लक्षणावली ६-२४) ।
१ अरहन्त श्रादि परम गुरुनों की यथायोग्य पूजा में तत्पर रहना, ज्ञानादि के विषय में विधिपूर्वक भक्ति से युक्त रहना, गुरु के अनुकूल सर्वत्र प्रवृति करना; प्रश्न, स्वाध्याय, वाचना, कथा एवं विज्ञप्ति श्रादिविषयक पूजा-प्रशंसादि में कुशल रहना; देशकालादि का ज्ञान प्राप्त करना, तथा प्राचार्य से अनुमत श्राचरण करना; यह सब विनयशुद्धि कहलाती है । विनयसम्पन्नता - १. सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधनेषु च गुर्वादिषु स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार आदरो विनयस्तेन संपन्नता विनयसंपन्नता । ( स. सि. ६ - २४ ) । २. ज्ञानादिषु तद्वत्सु चादरः कषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता । सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधनेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार प्रादरः कषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता । (त. वा. ६, २४, २) । ३. ज्ञानादिषु तद्वत्सु च महादरो यः कषायविनिवृत्या । तीर्थकरनामहेतुः स विनयसम्पन्नताभिख्यः ।। (ह. पु. ३४ - १३३ ) | ४. संज्ञानादिषु तद्वत्सु वादरोत्थानपेक्षया । कषायविनिवृत्तिर्वा विनयैर्मुनिसम्मतेः ॥ संपन्नता समाख्याता मुमुक्षूणामशेषतः । सद्दृष्ट्यादिगुणस्थानवर्तिनां स्वानुरूपतः ॥ (त. इलो. ६, २४, ३-४) । ५. सम्यग्दर्शनादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार श्रादरः कषाय-नोकषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता । (चा. सा. पृ. २५)। ६. ज्ञान-दर्शन- चारित्रेषु तद्वत्सु चादरोकषायता वा विनयसम्पन्नता । ( भावप्रा. टी. ७७)। ७. रत्नत्रय मण्डिते रत्नत्रये च महानादर कषायत्वं च विनयसम्पन्नता ॥ ( त वृत्ति श्रुत.
Jain Education International
[विनाश
१ मोक्ष के साधनभूत सम्यग्दर्शनादि और उनके भी साधन जो गुरु श्रादि हैं उनका अपनी अपनी योग्यता के अनुसार श्रादर-सत्कार करना, इसका नाम विनयसम्पन्नता है । यह तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक कारणों में से एक है ।
विनयसंश्रय - वीक्ष्यागन्तुकमायान्तं यतिमुत्थाय संभ्रमात् । पदानि सप्त गत्वा च कृत्वा तद्योग्यवन्दनम् || मार्गश्रान्तिमपोह्यासनप्रदानादि यत्नतः । त्रिरत्न सुस्थितादीनां प्रश्नो विनयसंश्रयः ॥ ( श्राचा. सा. २, १७-१८) |
मुनि को प्राते हुए देखकर शीघ्रता से उठकर खड़े हो जाना, सात पग ( कदम ) धागे जाकर उनके अनुरूप वन्दना करना, पश्चात् मार्ग को थकावट को दूर करके प्रयत्नपूर्वक श्रासन श्रादि देना तथा रत्नत्रय आदि की उत्तम परिस्थिति के सम्बन्ध में प्रश्न करना; इसका नाम विनयसंश्रय है । विनयाचार - कायिक- वाचनिक मानसशुद्धपरिणा मैः स्थितस्य तेन वा योऽयं श्रुतस्य पाठो व्या ख्यानं परिवर्तनं यत्स विनयाचारः । ( मूला. वृ. ५-७२) ।
कायिक, वाचनिक और मानसिक शुद्ध परिणामों के साथ जो स्थित है उसके लिए अथवा उसके द्वाराउक्त शुद्ध परिणामों से स्थित स्वयं के द्वाराशास्त्र का जो पाठ, व्याख्यान श्रौर परिवर्तनबार-बार अनुशीलन किया जाता है, इसे विनयाचार कहा जाता है ।
विनयोपसम्पत् - पाहुणविणउवचारो तेसि चावासभूमिसंपुच्छा । दाणाणुवत्तणादी विणये उपसंपया या ।। (मूला. ४-१६, पृ. १२३ ) । प्राघूर्णिक (अभ्यागत साधुजन) का जो पादमर्दन व नम्रतापूर्ण सम्भाषण प्रादि रूप विनय तथा श्रासन प्रदानादिरूप उपचार किया जाता है, उनसे श्रावास और भूमि (मार्ग) विषयक जो पूछ-ताछ की जाती है, तथा पुस्तक प्रादि के दान के साथ जो उनके अनुकूल व्यवहार किया जाता है, इस सबको विनयोपसम्पत् कहा जाता है। यह पांच प्रकार की उपसम्पत् में प्रथम है ।
विनाश - पूर्वाकारान्यथाभावो विनाशो वस्तुनः पुन: । ( भावसं वाम. ३८० ) ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org