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महाव्रत
१००, जैन-लक्षणावली
[महासत्ता
३. विशेषेण ईरयति कर्म गमयति याति वा शिव- क्षेत्र्यां धनं वपन् । दयया चातिदीनेषु महाश्रावक मिति वीरः, महांश्चासौ वीरश्च महावीरः। (योग- उच्यते । (योगशा. ३-११६) । २. एवं पालशा. स्वो. विव. ३-१२४) । ४ वीरयति स्म कषा- यितुं व्रतानि विदधच्छीलानि सप्तामलान्यागर्णः यादिशत्रन प्रति विक्रामति स्मेति वीरः, महांश्चासौ समितिष्वनारतमनोदीप्राप्तवाग्दीपकः । वैय्यावृत्त्यवीरश्च महावीरः। (प्रज्ञाप. मलय. व..१-१)। परायणो गुणवतां दीनानतीवोद्धरंश्च देव१ जो विशेषरूप से ईरित करता है, अर्थात् कर्मों सिकीमिमां चरति यः स स्यान्महाश्रावकः । (सा. ध. का क्षय करता है, अथवा मोक्ष को प्राप्त कराता ५-५५); xxx एतेन सम्यग्दर्शनशुद्धत्वं है वह महान् वीर होने से महावीर कहलाता है। व्रत-भूषणभूषितत्वं निर्मलशीलनिधित्वं संयमनिष्ठत्वं महाव्रत-१. साहति जं महल्ला आयरियं जं जिनागमज्ञत्वं गुरुसुश्रूषकत्वं दयादिसदाचारपरत्वं महल्लपूवेहिं । जं च महल्लाणि तदो महल्लया चेति सप्तगुणयोगान्महाश्रावकत्वं कस्यचित् सुकृतिइत्तहे याई। (चारित्रप्रा. ३०)। २. साहति जं न: कालादिलब्धिविशेषवशाद् भवतीति तात्पर्योऽत्र महत्थं प्राचरिदाणी य ज महल्लेहि। जं च मह- प्रतिपत्तव्य इति । (सा. घ. स्वो. टी. ५-५५) । ल्लाणि तदो महव्वयाई भवे ताई। (मला. ५, १ इस प्रकार जो अणुव्रतादि रूप श्रावक के व्रतों १७) । ३. देश-सर्वतोऽणुमहती। (त. सू. ७-.)। में स्थित होकर भक्तिपूर्वक जिन विम्ब, जिनभवन, ४. एभ्यो हिसादिभ्यः xxx सर्वतो विरतिर्म- जिनागम, साधु, साध्वी, श्रावक और धाविका इन हाव्रतम् । (त. भा. ७-२) । ५. साधेति जं महत्थं सात क्षेत्रों में तथा दया से प्रेरित होकर प्रतिआयरिदाईच ज महल्लेहिं । ज च महल्लाइ सय शय दीन दुखी जीवों में धन को बोता है-उसका महव्वदाई हवे ताइ॥ (भ. प्रा. ११८४)। दान करता है- उसे महाश्रावक कहा जाता है। ६. पंचानां पापानां हिंसादीनां मनोवचःकायैः। २. पांच प्रणवतों के पालन करने के अभिप्राय से कृत-कारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम् । जो व्रतों के रक्षण रूप सात शीलों को-तीन गुण(रत्नक.७२) । ७. हिंसादेः सर्वतो विरतिर्महा- व्रतों और चार शिक्षाव्रतों को-धारण करता हमा व्रतम् । (त. वा. ७, २, २)। ८. पंच महाव्रतानि निरन्तर समितियों के पालन में उद्यत ।हता है प्राणातिपातादिविनिवृत्तिलक्षणानि । (नन्दी. हरि. तथा गुणी जनों के वैयावृत्य में तत्पर रहता है वृ. पृ. ८; प्राव. नि. हरि. वृ. ११६७) । ६. महा- वह इस दैनिक अनुष्ठान का परिपालन करता व्रतं भवेत्कृत्स्नहिंसाद्यागोविवर्जनम् । (म. पु. ६, हुमा महाश्रावक होता है। ४)। १०. महान्ति च तानि व्रतानि प्राणातिपात- महाश्वाक्ष-ग्राशुगमनादश्वो मनः, अक्षाणि इन्द्रिविरमणादीनि । (सूत्रकृ. शी. व. २, ६, ६)। याणि स्वविषयव्यापकत्वात्; अश्वश्चाक्षाणि च ११. सर्वतो विरति म मुनियोग्यं महाव्रतम् । अश्वाक्षाणि, महान्ति प्रश्वाक्षाणि यस्यासौ महा(लाटीस. ५-५८)। १२. सर्वतो विरतिस्तेषां स्वाक्षः । (जीवाजी. मलय. वृ. ८४, पृ. १०६)। हिंसादीनां व्रतं महत् । (पचाध्या. २-७२१)। शीघ्रतापूर्ण गमन (विषयसंचार) के कारण मन १ जिस कारण महापुरुष उनको सिद्ध करते हैं, को अश्व (घोड़ा) कहा जाता है, अक्ष का अर्थ महापुरुषों ने उनका आचरण किया है, तथा वे स्वयं व्यापक होता है, अपने विषयों में व्यापक होने के महान् हैं; इसलिए हिंसादि के पूर्णतया परित्याग कारण इन्द्रियों को प्रक्ष कहा जाता है, जिसका को महाव्रत कहा जाता है। २ जो महान् अर्थ को मन और इन्द्रियां महान होती हैं वह महाश्वाक्ष -मोक्ष को---सिद्ध करते हैं जो महापुरुषों के इस विशेषण से विशिष्ट होता है। द्वारा प्राचरित (परिपालित) हैं, और जो स्वयं महासत्ता-१. सर्वपदार्थसार्थव्यापिनी सादश्यामहान है उन हिंसादि पापों के त्यागरूप व्रतों को स्तित्वसूचिका महासत्ता। (पंचा. का. अमृत. व. महावत कहते हैं। ४ हिंसादि से सर्वथा विरत ८)। २. समस्त वस्तुविस्तरव्यापिनी महासत्ता, होने का नाम महावत है।
समस्तव्यापकरूपव्यापिनी महासत्ता अनन्तपर्यायमहाश्रावक-१. एवं व्रतस्थितो भक्त्या सप्त- व्यापिनी महासत्ता । (नि. सा. व. ३४)। ३.
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