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प्रशस्त ध्यान ]
क. पा.
सामणा तिस्से वि दुवे णामाणि सव्वकरणोवसामणाति वि पसत्थकरणोवसामणा त्तिवि । चू. पृ. ७०८ ) । २. सव्वकरणुवसामणाए अण्णाणि दुवे णामाणि गुणोवसामणा तिच पसत्थुवसामणा त्ति च ( धव. पु. १५, पृ. २७५ ) ।
२ सर्वकरणोपशामना को ही प्रशस्त करणोपशामना कहते हैं । अर्थात् प्रशस्त परिणामों के द्वारा उदीरणादि श्राठों करणों के उपशान्त होने को प्रशस्त करणोपशामना कहते हैं । प्रशस्त ध्यान - पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्याव - लम्बनात् । चिन्तनाद्वस्तुतत्त्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते ॥ ( ज्ञाना. ३ - २६, पृ. ६६ ) ; अस्तरागो मुनिर्यत्र वस्तुतत्त्वं विचिन्तयेत् । तत् प्रशस्तं मतं ध्यानं सूरिभिः क्षीणकल्मषैः ।। (ज्ञाना. २५-१८, पृ. २५६) ।
पुण्य प्राशय - शुभ उपयोग - के वश शुद्ध लेश्या के श्रालम्बन से वस्तुतत्त्व के चिन्तन करने को प्रशस्त ध्यान कहते हैं ।
प्रशस्त निदान - १. संजमहेदुं पुरिसत्त सत्त-बलवीरिय संघदणबुद्धी । सावत्र बंधुकुलादीणि णिदाणं होदि हु पत्थं ॥ (भ. प्रा. १२१६ ) । २. परिपूर्ण संयममाराधयितुकामस्य जन्मान्तरे पुरुषादिप्रार्थना प्रशस्तं निदानम् । (भ. श्री. विजयो. २५) ; एतानि पुरुषत्वादीनि संयमसाधनानि मम स्युरिति चित्तप्रणिधानं प्रशस्तनिदानम्, सावयबंधुकुलादिनिदानं दरिद्रकु बन्धुकुले वा उत्पत्तिप्रार्थना प्रशस्तनिदानम् । (भ. श्री. विजयो. १२१६ ) ।
१ संयम के हेतुभूत मनुष्य पर्याय, सत्त्व (उत्साह), बल (शारीरिक), वीर्य और संहनन; इनकी प्रार्थना करना तथा श्रावककुल व बन्धुकुल में उत्पन्न होने की प्रार्थना करना, यह प्रशस्त निदान कहलाता है ।
प्रशस्त निस्सरणतैजस- देखो तंजस व तैजससमुद्घात । जं तं पसत्थं तं पि एरिस (बारहजोयणायामं णवजय वित्थरं सूचिगुलस्स संखेज्जदिभाग बाहल्लं) चेव । णवरि हंसधवलं दक्खिणंससंभवं अणुकंपाणिमित्तं मारिरोगादिपस मणक्खमं । ( धव. पु. ४, पृ. २८); प्रणुकंपादो दक्खिणंसविणिग्गयं डमरमारीदिपसमक्खमं दोसयर हिदं सेदवण्णं णव- बारहजोयणरु दायामं पसत्थं नाम तेया
७८२, जैन - लक्षणावली
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[प्रशस्त राग
सरीरं । (धव. पु. ७, पृ. ३०० ) ।
बारह योजन श्रायत, नौ योजन विस्तृत, सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण बाहल्य से सहित और हंस के समान धवल वर्ण वाला जो तेजस शरीर अनुकम्पाश साधु के दाहिने कन्धे से निकल कर मारी श्रादि रोगों के शान्त करने में समर्थ होता है उसे प्रशस्त निस्सरणतेजस कहते हैं । प्रशस्त नोश्रागमभावोपक्रम - १. प्रशस्तं श्रुतादिनिमित्तमाचार्य भावोपक्रमः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १, पृ. २ ) । २. परश्च ( प्रशस्तः) श्रुतादिनिमित्तमाचार्य भावावधारणरूपः । ( जम्बूद्वी. शा. व. पृ. ६) ।
१ श्रुत श्रादि के निमित्त श्राचार्यत्व के निर्धारण को प्रशस्त नोश्रागमभावोपक्रम कहते हैं । प्रशस्त प्रभावना तित्थयर - पवयण-निव्वाणमग्गभावणा पसत्था । ( जीतक. चू. २८, पृ. १३ ) । तीर्थंकर, प्रवचन और मोक्षमार्ग के प्रभाव को प्रगट करना; इसे प्रशस्त प्रभावना कहा जाता है । प्रशस्त भावपिण्ड - मुच्चइ य जेण सो उण पसत्यो नवरि विन्नेन । ( पिण्डनि. ६४ ) । जिसके आश्रय से जीव कर्म से छुटकारा पाता है उसे प्रशस्त भावपिण्ड कहते हैं। वह क्रमशः एक-दो श्रादि के भेद से दस प्रकार का है । यथा-एक संयम, दो ज्ञान व चारित्र, तीन ज्ञान, दर्शन व चारित्र; इत्यादि के क्रम से दस - उत्तम क्षमामार्दवादि ।
प्रशस्त भावयोग - x x x सम्मत्ताई पसत्थ XXX । ( श्राव. नि. १०३८ ) । सम्यग्दर्शनादिरूप उत्तम भावों को प्रशस्त भावयोग कहते हैं ।
प्रशस्त भावसंयोग-नाणेणं नाणी दसणेणं दंसणी चरित्तेणं चरित्ती, से तं पसत्थे । ( श्रनुयो. सू. १३०, पृ. १४४) ।
ज्ञान के संयोग से ज्ञानी, दर्शन के संयोग से दर्शनी और चारित्र के संयोग से चारित्री इत्यादि प्रशस्त भावसंयोग पद कहलाते हैं । प्रशस्त राग - १. अरहंत सिद्ध-साहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा । श्रणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुच्चति ॥ ( पंचा. का. १३६ ) । २. अरहंतेसु य राम्रो ववगदरागेसु दोस रहिएसु ।
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