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जैन लक्षणावली
प.१७१) इतना विशेष कहा गया है कि पर्यायरूप कलंक से रहित शुद्ध द्रव्याथिक स्वरूप संग्रहनय के विषयभूत अद्वैत से शेष दो-तीन आदि अनन्त विकल्परूप संग्रह प्रस्तार का पालम्बन लेने वाला जो व्यवहारनय है उसे पर्यायरूप कलंक से दूषित होने के कारण अशुद्ध द्रव्याथिक जानना चाहिये । यही अभिप्राय जयधवला (१, पृ. २६६) में भी प्रगट किया गया है।
पाव. निर्य क्ति (७५६) में उसके स्वरूप को दिखलाते हए कहा गया है कि जो विनिश्चयार्थसामान्याभाव के निमित्त-जाता है, अर्थात् सामान्याभावस्वरूप बिशेष को विषय करता है, उसे व्यवहारनय कहते हैं। इस नियुक्ति (वच्चइ विणिच्छयत्थं ववहारो सव्वदव्वेसु ।) की व्याख्या करते हुए प्रा. मलयगिरि ने 'विनिश्चय' के अन्तर्गत 'निर' का अर्थ अधिकता किया है, इस प्रकार अधिकता से होनेवाले चय को निश्चय मानकर उन्होंने यह अभिप्राय प्रगट किया है कि जो उस निश्चय (सामान्य) से विगत है-सामान्य को विषय न करके उसके प्रभावस्वरूप विशेष को विषय करता है उसका नाम व्यवहारनय है। आगे उन्होंने 'विशेषतोऽवह्रियते निराक्रियते सामान्यमनेनेति व्यवहारः' ऐसी निरुक्ति करते हए निष्कर्ष रूप में उसी अभिप्राय को व्यक्त किया है कि जो नय विशेष के प्रतिपादन में तत्पर रहता है उसे व्यवहारनय समझना चाहिए।
त. भाष्य (१-३५) में उक्त नय के लक्षण को प्रगट करते हए प्रारम्भ में यह कहा गया है कि जो नय लौकिक जन के समान उपचारप्राय विस्तृत अर्थ को विषय करता है वह व्यवहारनय कहलाता है। तत्पश्चात् प्रसंगानुरूप एक शंका का समाधान करते हुए वहां उसके लक्षण में पुनः यह कहा गया है कि नामस्थापनादि विशेषणों से विशिष्ट वर्तमान, अतीत और भविष्यत् कालीन एक अथवा बहुत से घट जो संग्रहनय के विषयभूत रहे हैं, लौकिक (व्यवहारी)जन और परीक्षक जन के द्वारा ग्राह्य उपचारगम्य उन्हीं घटों के विषय में स्थूल पदार्थों के समान जो बोध होता है उसे व्यवहारनय समझना चाहिये।।
अमतचन्द्र सरि प्रसंगानसार प्रकृत व्यवहारनय के लक्षण में यह कहते हैं कि पुद्गलपरिणामरूप जो प्रात्मा का कर्म है वह पुण्य और पाप के भेद से दो प्रकार का है। उस पुद्गलपरिणाम का कर्ता आत्मा उसको ग्रहण करता है व छोड़ता है, इस प्रकार से जो अशुद्ध द्रव्य का निरूपण किया करता है उसे व्यहारनय जानना चाहिये (प्रव. सा. वृत्ति २-६७) । तत्त्वानुशासन (२६.) के अनुसार ब्यवहारनय वह है जो भिन्न कर्ता व कर्म आदि को विषय करता है।
सूत्रकृतांग की शीलांक विरचित वृत्ति (२,७, ८१, पृ. १८८) में कहा गया है कि जो लोकव्यवहार के अनुसार वस्तु को ग्रहण किया करता है उसका नाम व्यहारनय है। स्थानांगकी अभयदेव विरचित वृत्ति (१८६) में सम्भवतः प्राव. नियुक्ति का अनुसरण करते हुए निरुक्तिपूर्वक यही कहा गया है कि जो सामान्य का निराकरण करके विशेष रूप से वस्तु को ग्रहण करता है उसका नाम व्यवहारनय है। अथवा लोकव्यवहार में तत्पर होकर विशेष मात्र को जो स्वीकार करता है उसे व्यवहारनय समझना चाहिये।
श्रमण-प्राचीन काल में जैन ऋषियों के लिए श्रमण शब्द का उपयोग होता रहा है। प्रवचनसार (३,४०-४१) के अनुसार पांच समितियों और तीन गुप्तियों का पालन करने वाले, पांचों इन्द्रियों व कषायों के विजेता, दर्शन व ज्ञान से परिपूर्ण तथा शत्र व मित्न. सख व दख. प्रशंसा व निन्दा. मिदी व सोना एवं जीवन व मरण; इनमें सम-राग-द्वेष से रहित-होते हैं ऐसे मुनियों को श्रमण कहा गया है।
सूत्रकृतांग (१, १६, २) में श्रमण की अनेक विशेषताओं को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जो शरीर आदि विषयक प्रतिबन्ध से व निदान से रहित होता है, प्रादान, अतिपात, मषावाद, बहिद्ध (मंथन), क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष इत्यादि जो स्व और पर का अहित करनेवाले हैं उनको ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से जो परित्याग करता है। इसके अतिरिक्त जो जिस जिस अनुष्ठान से अपने प्रद्वेष के कारणों को देखता है—उस सबसे विरत होता है; तथा जो दान्त, द्रविक (संयमी) व शरीर से निःस्पृह होता है, उसे श्रमण जानना चाहिये । उत्तरा. चूणि (पृ. ७२) के अनुसार जिसका मन सर्वत्र - शत्रु-मित्र आदि के विषय में, सम-राग-द्वेष से रहित होता है वह समण (थमण) कहलाता है।
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