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विशदप्रतिभासत्व]
१०१७, जैन-लक्षणावली
[विशेष
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माम्यन्तर कषाय प्रादि तथा बाह्य गण, शरीर और होने पर जो प्रात्मा की निर्मलता होती है उसे भक्त-पान प्रादि को अयोग्य होने के कारण जो जो विशद्धि कहते हैं। ३ सातावेदनीय के बन्धयोग्य परित्याग किया जाता है। इसका नाम विवेक है। परिणाम का नाम विशद्धि है। ५ ब्राह्मण प्रादि उसके प्रति प्रास्था रखना या स्वीकार करना, इसे वर्णों और ब्रह्मचारी प्रादि प्राश्रमों के अपने प्राचार विवेकप्रतिमा कहते हैं।
से भ्रष्ट होने पर तीन वेदों के निर्देशानुसार विशुद्धि विशदप्रतिभासत्व-किमिदं विशदप्रतिभासत्वं हमा करती है। ७ अपराध से मलिन हए प्रात्मा नाम? उच्यते-ज्ञानावरणस्य क्षयाद्विशिष्टक्षयोप- के निर्मल करने का नाम विशद्धि है। शमाद्वा शब्दानुमाना ह संभवि यन्नमल्यमनुभव मिद्धम्। विशुद्धिलब्धि -१. पडिसमयमणंतगुणहीणकमेण (न्यायदी. पृ. २४)।
उदीरिदअणभागफयजणिदजीवपरिणामो सादादिज्ञानावरण के क्षय प्रथवा विशिष्ट क्षयोपशम से सुहकम्मबंधणिमित्तो प्रसादादिप्रसुहकम्मबंधविरुद्धो शब्द (भागम) और अनुमान आदि में असम्भव विसोही णाम । तिस्सेवुवलंभो विसोहिलद्धी णाम । ऐसी जो अनुभवसिद्ध निर्मलता प्रगट होती है उसे (धव. पु. ६, पृ. २०४) । २. आदिमलद्धिभवो जो विशदप्रतिभास कहते हैं।
भावो जीवस्स सादपहदीणं। सत्थाणं पयडीणं बंधणविशसिता - विश सिता हतस्याङ्गविभागकरः । जोगो विशुद्ध [द्धि] लद्धी सो॥ (ल. सा. ५)। (योगशा. स्वो. विव. ३-२१)।
३. मिथ्यादृष्टिजीवस्य प्रागुक्तक्षयोपशमलब्धौ सत्यां मारे गये मग प्रादि प्राणी के अवयवों को जो सातादिप्रशस्तप्रकृतिबन्धहेतुर्यो भावो धर्मानुरागरूपविभक्त किया करता है उसे विशसिता कहा जाता शुभपरिणामो भवति तत्प्राप्तिविशुद्धिलब्धिः। (ल. है। यह हन्ता प्रादि के समान घातक के अन्तर्गत है। सा. टी. ५)।
ता--अइतिव्वकसायाभावो मंदकसानो वि- १ प्रत्येक समय में अनन्तगणे हीन क्रम से उदीरणा सुद्धदा। (धव पु. ११, पृ. ३१४)।
को प्राप्त अनुभागस्पर्षकों से जो सातावेदनीय प्रतिशय तीव्र कषाय के प्रभाव या मन्द कषाय का प्रादि पुण्य कर्मों के बन्ध का कारणभूत तथा नाम विशद्धता है। यह सातबन्धकों की विशद्धता प्रसाता प्रादि पाप कर्मों के बन्ध का विरोधी जीव
का परिणाम होता है उसे विद्धि और उसकी विशुद्धि-१. तदावरणक्षयोपशमे सति प्रात्मनः प्राप्ति को विशुद्धिलब्धि कहते हैं। प्रसादो विशुद्धिः । (स. सि. १-२४; त. वा. १, विशुद्धिस्थान-परियत्तमाणियाणं साद-थिर-सुहन २४)। २. तदभावो (संक्लेशाभावो) विशुद्धिरा- सुभग-सुस्सर-प्रादेज्जादीणं सुभपयडीणं बंधकारणस्मनः स्वात्मन्यवस्थानम् । (अष्टशती ६५) । भूदकसायट्ठाणाणि विसोहिट्ठाणाणि । (धव. पु. ११, ३. सादबंधजोग्गपरिणामो विसोही। (धव. पु. ६, पृ. २०८)। पु. १८०); सादबंधपायोग्गकसाउदयटाणाणि परिवर्तमान साता, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और विसोही । (घव. पु. ११, पृ. २०६) । ४. प्रात्म- प्रादेय प्रादि पुण्य प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत प्रसक्तिरत्रोक्ता विशुद्धिनिजरूपतः । (त. श्लो. १, कषायस्थानों को विशुद्धिस्थान कहा जाता है । २४)। ५. वर्णाश्रमाणां स्वाचारप्रच्यवने त्रयीतो विशेष-१. विशिष्यतेऽर्थोऽर्थान्तरादिति विशेषः। विशुद्धिः। (नीतिवा. ७-१९)। ६. विशुद्धिः प्रमो- (स.सि. ६-८)।२. विशिष्यते विशिष्टिर्वा विशेषः। दादिशुभपरिणामः।। (मा. मी. वसु. वृ. ९५)। विशिष्यतेऽर्थोऽर्थान्तरादिति विशेषः, अथवा विशि७. विशोधनं विशुद्धिः-अपराधमलिनस्यात्मनो ष्टिर्वा विशेषः । (त. वा. ६, ८, ११)। ३. प्रादेनिर्मलीकरणम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४)। सेण भेदेण विसेसेणेत्ति समाणट्ठो। (धव. पु. ४, ८. मनःपर्ययज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमादात्मनः प्रस- प.१४४-४५)। ४. विसेसो अणेयसंखो-वदिरेयनता विशुद्धिः। (त. वृत्ति थुत. १-२४)। लक्खणो विसेसोxxxI(षव.पु. १३, पृ. २३४)। १ विवक्षित ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयोपशम के ५. विशेषश्च विसदृशपरिणामलक्षणः। (न्यायवि.
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