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________________ शुभ-तैजससमुद्घात | प्रभियुक्त हैं ऐसे प्राचार्य, उपाध्याय व साधु के विषय में वात्सल्यभाव रहता है तो इसे शुभयुक्तचर्या - शुभ राग से युक्त चारित्र - कहा जाता है । शुभ-तैजससमुदघात - देखो प्रशस्त निःसरणज| लोकं व्याधि-दुर्भिक्ष्यादिपीडितमवलोक्य समुत्पन्नकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमत्यज्य शुभ्राकृतिः प्रागुक्त (दीर्घत्वेन द्वादश योजनप्रमाणः सूच्यंगुल संख्येय भागमूलविस्तारो नवयोजनाविस्तार: ) देहप्रमाणपुरुषो [दक्षिणस्कन्धान्निर्गत्य ] दक्षिण प्रदक्षिणेन व्याधि दुनियादिकं स्फोटयित्वा पुनरपि स्वस्थाने प्रविशति श्रसो शुभरूपस्तैजससमुद्घातः । (बृ. द्रव्यसं. टी. १०; कार्तिके. टी. १७६) । लोक को व्याधि व दुर्भिक्ष से पीड़ित देखकर जिस महर्षि के दया भाव उत्पन्न हुआ है तथा जो उत्कृष्ट संयम का परिपालन करने वाला है उसके मूल शरीर को न छोड़कर दाहिने कंधे से जो बारह योजन लम्बा और सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण मूल विस्तार वाला व नौ योजन माण अग्र विस्तार वाला पुरुष निकल करके दक्षिण-प्रक्षिणक्रम से युक्त व्याधि व दुर्भिक्ष श्रादि को दूर करता हुम्रा फिर अपने स्थान में प्रविष्ट हो जाता है उसे शुभ तैजससमुद्घात कहा जाता है। शुभध्यान-सुविसुद्ध राय-दोसो बाहिरसंकप्पवज्जिश्री धीरो । एयग्गमणो संतो जं चितइ तं पि सुहज्झाणं ।। ससरूवसमुब्भासो णट्टममत्तो जिदिदिनो संतो । अप्पाणं चिततो सुहज्झाणरम्रो हवे साहू ॥ (कार्तिके. ४८०-८१ ) | जो राग-द्वेष से सर्वथा रहित होकर प्रतिशय विशुद्धि को प्राप्त होता हुप्रा बाह्य शरीर एवं स्त्री, पुत्र व धन सम्पत्ति श्रादि चेतन प्रचेतन पदार्थों के संकल्प विकल्पसे रहित हो चुका है, जिसे अपने स्वरूप का प्राभास हो चुका है, ममत्व भाव से जो रहित हुम्रा है; तथा जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका है; ऐसा साधु एकाग्रचित्त होकर जो कुछ भी विचार करता है वह उसका शुभ ध्यान माना जाता है । उसी में वह रत रहता है । शुभनाम - ९. यदुदयाद्रमणीयत्वं तच्छुभनाम । ( स. सि. ८-११; त. इलो. ८-११) । २. यदुदयाद रमणीयत्वं तच्छुभनाम । यदुदयाद् दृष्टः श्रुतो Jain Education International [ शुभयोग वा रमणीयो भवत्यात्मा तच्छुभनाम । (त. वा. ८, ११, २७) । ३. जस्स कम्मस्स उदएण अंगोवंगणामकम्मोदय जणिदयं गाणमुवंगाणं च सुहत्तं होदि तं सुहं णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ६४); जस्स कम्मस्सुदएण चक्कवट्टि बलदेव वासुदेवत्तादिरिद्धीणं सूचया संखंकुसारविंदादश्रो अंग-पच्चंगेसु उप्पज्जंति तं सुहं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३६५ ) । ४. यदुदयादङ्गोपाङ्गनामकर्मजनितानामंगानामुपाङ्गानां च रमणीयत्वं तच्छुभनाम । ( मूला. वृ. १२ - १६६ ) । ५. यतश्च शिरःप्रभृतीनां शुभानां (निष्पत्तिर्भवति ) तच्छुभनाम । (समवा. अभय वृ. ४२ ) । ६. तथा यदुदयान्नाभेरुपरितना अवयवाः शुभाः जायन्ते तत् शुभनाम । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १६३, पृ. ४७४) । ७. रमणीयत्वकारणं शुभनाम । ( भ. प्रा. मूला. २१२४) । ८. यदुदयात् रमणीया मस्तकादिप्रशस्तावयवा भवन्ति तच्छुभनाम । ( गो . क. जी. प्र. ३३ ) । ६. यदुदयेन रमणीयो भवति तच्छुभनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११ ) । १ जिसके उदय से शरीर रमणीय होता है उसे शुभ नामकर्म कहते हैं । ३ जिस कर्म के उदय से अंग और प्रत्यंगों में चक्रवतित्व, बलदेवत्व श्रौर वासुदेवत्व प्रादि ऋद्धियों के सूचक शंख, अंकुश और कमल श्रादि चिह्न होते हैं उसे शुभ नामकर्म कहा जाता है ५ जिसके निमित्त से शिर श्रादि उत्तम अंग- उपांगों की उत्पत्ति होती है वह शुभ नामकर्म कहलाता है । १०६४, जैन-लक्षणावली शुभ मनोयोग - १ ततः (वध चिन्तनेर्ष्यासूयादिरूपादशुभमनोयोगात् ) विपरीतः शुभः । ( स. सि. ६- ३ ) । २. ततोऽनन्तविकल्पादन्यः शुभः । तस्मादनन्तविकल्पादशुभयोगादन्य: शुभयोग इत्युच्यते । तद्यथा - XXX ग्रहंदादिभक्ति तपोरुचि श्रुतविनयादिः शुभो मनोयोग: । (त. वा. ६, ३, २ ) । ३. श्रदादिभक्तिस्तपोरुचिः श्रुतविनयादिश्च शुभो मनोयोगश्चेति । (त. वृत्ति श्रुत. ६-३ ) । २ अरहन्त व प्राचार्य श्रादि की भक्ति, तप में रुचि और श्रुत का विनय इत्यादि शुभ मनोयोग के लक्षण हैं । : १. शुभपरि शुभयोग - देखो शुभमनोयोग | णामनिर्वृत्तो योगः शुभः । ( स. सि. ६-३ ) । २. सम्यग्दर्शनाद्यनुरंजितो योगः शुभो विशुद्धयंगत्वात् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016023
Book TitleJain Lakshanavali Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1979
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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