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स्पर्शनेन्द्रियेहावरणीय] १२०१, जैन-लक्षणावली
[स्मृति अण्णदमस्स लिगण्णेसणं फापिदियगढईहा। (धव. भासं जिनदत्ते स देवदत्तो यथा। (परीक्षा. ६-८)। पु. १३, पृ. २३१)।
२. प्रतस्मिस्तदिति परामर्शः स्मृत्याभासः । (लघीय. स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा स्निग्ध प्रादि स्पर्श को ग्रहण अभय. वृ. २५, पृ. ४६)। करके क्या यह मदन स्पर्श है, क्या वज्रलेपस्पर्श है, जो 'वह' नहीं है उसमें जो 'वह' का ज्ञान होता
। कुमारिगिरस्पर्श है, अथवा क्या पिशित-मांस- है उसे स्मरणाभास माना जाता है। जैसे-जो स्पर्श है, इस प्रकार इनमें से किसी एक के हेतु का जिनदत्त देवदत्त नहीं है उसमें 'वह देवदत्त है', इस प्रन्वेषण करना, इसे स्पर्शनेन्द्रियजन्य ईहाज्ञान कहा प्रकार का ज्ञान । जाता है।
स्मरतीवाभिनिवेश-देखो कामतीव्राभिनिवेश व स्पर्शनेन्द्रियेहावरणीय तिस्से (फासिदिय-ईहा- कामतीव्राभिलाष । स्मरतीव्राभिनिवेशः कामेऽतिमायाः) अावारयं कम्म फासिदियईहावरणीयं । (धव. त्रम ग्रहः, परित्यक्तान्यसकलव्यापारस्थ तद्व्यवसायि. पु. १३, पृ २३२) ।
तेत्यर्थः । (सा. ध. स्वो. टी. ४-५८)। स्पर्शनेन्द्रिय ईहाज्ञान के प्रावरक कर्म का नाम काम के विषय में अतिशय प्राग्रह रखना अर्थात् स्पर्शनेन्द्रियेहावरणीय कर्म है।
अन्य समस्त व्यापार को छोड़कर काम में ही स्फोट - स्फूटति प्रकटीभवत्यर्थोऽस्मिन्निति स्फोट. प्रवृत्त रहना, इसे मरतीव्राभिनिवेश कहा जाता है। श्चिदात्मा । (न्यायकु. ६५, पृ. ७५४) । यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का एक अतिचार है । जहां अर्थ प्रकट होता है उस चेतन प्रात्मा को जन स्मृति-१. प्रमाणमयंसवादात् प्रत्यक्षान्वयिनी दृष्टिकोण से स्फोट कहा जा सकता है।
स्मृतिः। (प्रमाणसं. १०)। २. स्मृतिज्ञानं प्राक् स्फोटजीविका- १. फोडिकम्म उदत्तेण हलेण परिच्छिन्नेन्द्रियार्थग्राहि मानसं । (त. भा. हरि. व. वा भूमीफोडणं । (प्राव. हरि. वृ. ६-७, पृ. ८२६)। १-१३) । ३. दिट्ठ-सुदाणुभूदट्ठविसयणाणविसे सिद२. सर.कपादिखननं शिलाकुट्टनकर्मभिः । पृथि- जीवो सदी णाम। (धव. पु. १३, पृ. ३३३)। व्यारम्भसंभूतंर्जीवनं स्फोट नीविका ।। (योगशा. ४. तदित्याकारानुभूत र्थविषया स्मृतिः। (प्रमाणप. ३-१०६; त्रि. श. पु. च. १, ३, ३४०), ३. स्फोट- पृ. ६६) । ५. स्मरणं म्मतिः, सैव ज्ञानं स्मृतिज्ञानम, जीविका उडादिकर्मणा पृथिवीकायिकाद्युपमदहेतुना तैरेवेन्द्रिययः परिच्छिन्नो विषयो रूपादिस्तं यत् जीवनम् । (सा. ध. स्वो. टी. ५-२१)। कालान्तरेण विनष्टमपि स्मरति तत् स्मृतिज्ञानम्, १ उदत्त अथवा हल से पृथिवी को फोड़कर जो अतीतवस्त्वालम्बनमेक कर्तकं चैतन्यपरिणतिस्वभाव प्राजीविका की जाती है उसे स्फोटकर्म या स्फोट- मनोज्ञानमिति यावत् । (त. भा. सिद्ध. व. १-१३); जीविका कहते हैं। २ तालाब व कुएँ के खोदने स्मयंतेऽनेनेति स्मतिर्मनोऽभिधीयते, स्मतिहेतुत्वाद प्रादि शिलानों को तोड़ने अथवा चिनने आदि वा स्मृतिर्मन:। (त. भा. सिद्ध. व. ६-३१) । को क्रियानों के द्वारा आजीविका करने का ६. संस्कारोबोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मतिः । नाम स्फोटजीविका है। यह क्रिया पृथिवी के स देवदत्तो यथा । (परीक्षा. ३, ३-४) । ७. ज्ञानप्रारम्भ से सम्पन्न होती है । ३ पृथिवीकायिकादि- विशेष एव हि संस्कार विशेषप्रभवः तदित्याकारोजीवों के उपमर्दन की हेतभत उडादि क्रिया के द्वारा ऽनुभतार्थविषयः स्मतिरित्युच्यते । (न्यायक. १०, जीविकाक के रने को स्फोटजीविका कहा जाता है। पृ. ४०६)। ८. तदित्याकारानुभतार्थविषया स्मय-परापराधसहनप्रायत्वात् स्मयः । (त. भा. प्रतीति: स्मृति: । (प्र, क. मा. ३-४) । ६. किमिसिद्ध. व. ८-१०)।
दं स्मरणं नाम ? तदित्यतीतावभासी प्रत्ययः । परत अपराध के सहनप्राय होने से स्मय होता (प्रमाणनि. पू. ३३)। १०. ततः कालान्तरे कूतहै। यह मान के पर्यायनामों के अन्तर्गत है। श्चित्तादृशार्थदर्शनादिकात् संस्कारस्य प्रबोधे यद्स्मरण- देखो स्मृति ।
ज्ञानमुदयते तदेवेदं यन्मया प्रागुपलब्धम् इत्यादिरूपा स्मरणाभास-१. प्रतस्मिस्तदिति ज्ञानं स्मरणा- सा स्मृति: । (प्राव. नि. मलय. व. २, पृ. २३):
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