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तमुत्पत्ति सत्कर्मस्थान ] घातिगुणहीणं काढूण द्विदेणेत्ति वृत्तं होदि । ( धव. पु. १२, पृ. २६ ) । १ श्रनुभागसत्कर्म का घात कर देने पर जिनको उत्पत्ति होती है उन्हें हतसमुत्पत्तिककर्म कहते हैं । हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान देखो हतोत्पत्तिकस्थान । जाणि अणुभागट्टाणाणि घादादो चेत्र उपज्जति, ण बंधादो, लाणि अणुभागसंतकम्मट्टाणाणि भण्णति । तेसि चेत्र हृदसमुत्तिणाणि विदिया सण्णा । ( धव. पु १२, पृ. २१६ ) । जो अनुभागस्थान घात से ही उत्पन्न होते हैं, बन्ध से उत्पन्न नहीं होते, उन्हें अनुभागसत्कर्मस्थान कहा जाता है उनका दूसरा नाम हतसमुत्पत्तिकस्थान भी है।
हत हतिसमुत्पत्ति सत्कर्मस्थान - देखो हतहतोत्पत्तिकस्थान । हतस्य वृतिः हततिः, ततः समुत्पत्तिर्येषां तानि इतत्तिसमुत्पत्तिकानि ! जयध. - कसायपा. पृ. १७५ टि. ) : घातित अनुभाग के घात से जिन अनुभाग सत्कर्मस्थानों की उत्पत्ति होती है उन्हें हतहतिसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं ।
हत हतोत्पत्तिकस्थान - देखो हतहतिसमुत्पत्तिकस्थान । यानि पुन स्थितिघातेन रसघातेन चान्यथाऽन्यथाभवनादनुभागस्थानानि जायन्ते तानि च हतहतोत्पत्तिकान्युच्यते । हते उद्वर्तनापवर्तनाभ्यां घाते सति, भूयोऽपि तात् स्थितिघातेन रसघातेन घातादुत्पत्तिर्येषां तानि हत हतोत्पत्तिकानि । ( कर्मप्र. मलय. वृ. सत्ता २४) ।
जो अनुभागस्थान स्थिति के घात से और रस ( अनुभाग ) के घात से अन्य अन्य प्रकार से परिणत होते हैं उन्हें हतहतोत्पत्तिक कहा जाता है। कारण यह कि उद्वर्तना और अपवर्तना के द्वारा घात के होने पर पुनरपि स्थिति के घात और रस के घात से वे उत्पन्न होते हैं। इससे उनकी यह हतहतोत्पत्तिक संज्ञा सार्थक है - हतोत्पत्तिकस्थान - देखो हतसमुत्पत्तिकसत्कर्म - स्थान । तथा उद्वर्तनापवर्तनाकरणवशतो वृद्धि हानिभ्यामन्यथाऽन्यथा यान्यनुभागस्थानानि वैचित्र्यभाञ्जि भवन्ति तानि हतोत्पत्तिकान्युच्यन्ते । हतात् घातात् पूर्वावस्थाविनाशरूपादुत्पत्तिर्येषां तानि हतोत्पत्तिकानि । ( कर्मप्र. मलय. वृ. सत्ता. २४) ।
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१२१२, जैन-लक्षणावली
[ हस्त
उद्वर्तना और अपवर्तना करणों के वश होने वाली वृद्धि और हानि से अन्य अन्य प्रकार से परिणत विचित्र अनुभागस्थानों को हतोत्पत्तिक कहा जाता है। । कारण यह कि वे पूर्व अवस्था के विनाशरूप हत (धात) से उत्पन्न होते हैं। इससे उनकी यह हतोत्पत्तिक संज्ञा सार्थक है । हत्थिसुंडी १. हत्थिसुंडी हस्तिहस्तप्रसारणमिव एकं पादं प्रसार्यासनम् । (भ. श्री. विजयो. २२४ ) । २. हरिथसुंडि हस्तिहस्तप्रसारणमिव एक पाद संकोच्य तदुपरि द्वितीयं पादं प्रसार्यासनम् । (भ. प्रा. मूला. २२४) ।
२ हाथी की सूंड के समान एक पांव को संकुचित करके व उसके ऊपर दूसरे पांव को फैलाकर स्थित होना, इसे हत्थिसुंडी कहा जाता । यह कायक्लेश तप के अन्तर्गत श्रासन का एक प्रकार 1 हन्ता - हन्ता शस्त्रादिना प्राणिनां प्राणापहारकः । (योगशा. स्वो विव. ३ -२० ) ।
जो शस्त्र श्रादि के द्वारा प्राणियों के प्राणों का अप हरण किया करता है उसे हन्ता कहा जाता है । हरि - X Xx हरिः दुःखापनोदनात् । (लाटीसं.
४- १३२ ) ।
प्राणियों के दुःखों का अपहरण करने के कारण अरहन्त को हरि कहा जाता है ।
हर्ष - निर्निमित्तमन्यस्य दुःखोत्पादनेन स्वस्यार्थसंचयेत वा मनःप्रतिरञ्जनो हर्षः । ( नीतिवा. ४-७ ); तथा च भारद्वाजः -- प्रयोजनं विना दुःखं यो दत्त्वान्यस्य हृष्यति | आत्मनोऽनर्थसंदे [ दो ] हः स हर्षः प्रोच्यते बुधैः ॥ ( नीतिवा. टी. ४-७ ) । जो प्रकारण ही दूसरे को दुःख उत्पन्न करके अथवा अपने अर्थ संचय के द्वारा मन को अनुरंजायमान किया जाता है, इसे हर्ष कहते हैं । यह राजानों के काम क्रोधादिरूप अन्तरंग अरिषड्वर्ग में अन्तिम है ।
हस्त-१- दोणि विहृत्थी हत्थो X X X॥ ( ति प १ - ११४ ) । २. द्विवितस्तिः हस्तः । (त. वा. ३, ३८, ६) । ३. XX X तद्द्द्वयं ( वितस्तिद्वयं) हस्तः XXX ॥ ( ह. पु. ७-४५)। ४. हि वित्थीहि तहा हत्यो पुण होइ णायब्वो ॥ ( जं. दी. प. १३ - ३२ ) । ५. चतुर्विंशत्यंगुलो हस्त: । (त. वृत्ति श्रुत. ३- ३८ ) ।
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