Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 544
________________ स्वामित्व] १२११, जैन-लक्षणावली [हतसमुत्पत्तिक कर्म स्वामित्व-१. स्वामित्वमाधिपत्यम् । (स. सि. निश्चितात्प्राक्तानुभूतव्याप्तिस्मरणसहकृताद्धमादेः १-७; त. वा. १-७; त. वृत्ति श्रुत. १-७)। साधनादुत्पन्नं पर्वतादी धर्मिण्यग्न्यादेः साध्यस्य ज्ञानं २ उक्कस्सादिचदुण्णं पदाणं पापोग्गजीवपरूवणं स्वार्थानुमानमित्यर्थः । (न्यायदी. ५.७१-७२) । जत्थ कीरदि तमणियोगहारं सामित्तं णाम । (घव. स्वयं ही निश्चित साधन से जो साध्य का ज्ञान पु. १०, पृ. १६)। ३. कस्य इत्याधिपतित्वख्यापनं होता है उसे स्वार्थानमान कहते हैं। जैसे-किसी स्वामित्वम् । (न्यायकु. ७६, प.८०२) । दूसरे के उपदेश के विना स्वयं निश्चित म हेतु से विवक्षित वस्त के प्राधिपत्य का नाम स्वामित्व जो पर्वतादिमें अग्नि प्रादि साध्य का ज्ञान होता है। २ जिस अनुयोगद्वार में उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य है उसे स्वार्थानुमान समझना चाहिए। और प्रजघन्य इन चार पत्रों के योग्य जीवों की स्वास्थ्य-१. दुःखहेतुकर्मणां विनष्टत्वात् स्वास्थ्यप्ररूपणा की जाती है उसका नाम स्वामित्व अनु- लक्षणस्य सुखस्य जीवस्य स्वाभाविकत्वात् । (धव. पोगद्वार है। पु. ६, पृ. ४६१)। २. अात्मा ज्ञातृतया ज्ञानं सम्यस्वामी-धार्मिक: कुलाचाराभिजनविशुद्धः प्रताप- क्त्वं चरितं हि सः । स्वस्थो दर्शन-चारित्रमोहाभ्यावान् नयानुगतवत्तिश्च स्वामी। (नीतिवा. १७-१, मनपालतः ।। (त. सा. उपसं. ७)। ३. आत्मोत्थपृ. १८०)। मात्मना साध्यमव्याबाधमनुत्तरम् । अनन्तं स्वास्थ्यजो धर्मात्मा, कुलाचार व अभिजन से विशुद्ध; मानन्दमतृष्णमपवर्गजम् ।। (क्षत्रचू. ७-१३)। प्रतापशाली और नीति के अनुसार प्रवृत्ति करने १ दुःख के कारणभूत कर्मों के विनष्ट हो जाने पर वाला होता है उसे स्वामी कहा जाता है। जो निर्बाध स्वाभाविक सुख उत्पन्न होता है वही स्वाम्यदत्त-तत्र स्वाम्यदत्तं तृणोपल-काष्ठादिकं स्वास्थ्य का लक्षण है। तत्स्वामिना यददत्तम् । (योगशा. स्वो. विव. स्वेद-१. अंगैकदेशप्रच्छादकं स्वेदः । (मूला. व. १-२२)। जो तृण, पाषाण और लकड़ी प्रादि उसके अधिकारी १-३१) । २. अशुभकर्मविपाकजनितशरीरायासके द्वारा नहीं दी गई है उसे स्वाम्यदत्त कहा समुपजातपूतिगन्धसम्बन्धवासनाव। सितवाबिन्दुसन्दोजाता है। हः स्वेदः । (नि. सा. वृ. ६)। स्वार्थ-देखों स्वास्थ्य । स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष १ शरीर के एक देश को आच्छादित करने वाले पंसा स्वार्थः Xxx । (स्वयम्भ. ३१) । मल को (स्वेद-पसीना) कहते हैं । २ अशुभ कर्म के उदय से जो शरीर के द्वारा परिश्रम किया पुरुषों (जीवों) की जो प्रात्यन्तिक स्वस्थिति हैअनन्तचतुष्टयस्वरूप प्रात्मा में प्रवस्थान है जाता है उससे जो दुर्गन्धित जलबिन्दुओं का प्रादुवही उनका स्वार्थ है। र्भाव होता है वह स्वेद कहलाता है। स्वार्थश्रत-आद्यं (भावश्रतं) विकल्पनिरूपण- स्वोपकार-१. स्वोपकारः पुण्यसंचयः। (स. सि. रूपं स्वविप्रतिपत्तिनिराकरणफलत्वात्स्वार्थम । ७-३८; त. वा. ७, ३८, १) । २. विशिष्टगुण(अन. ध स्वो. टी. ३-५) । संचयलक्षणं स्वोपकारः। (त. वत्ति श्रुत. ७-३८)। अपनी विप्रतिपत्ति (प्रज्ञानता) का निराकरण १दान के प्राश्रय से जो दाता के पुण्य का संचय करने वाला जो विकल्प निरूपण स्वरूप ज्ञान है होता है वह दानजनित उसका स्वोपकार है । उसे स्वार्थश्रुत कहा जाता है । हतसमुत्पत्तिक कर्म-१. हते समुत्पत्तिर्येषां तानि स्वार्थाधिगम-स्वार्थाधिगमो ज्ञानात्मको मति- हतसमुत्पत्तिकानि । (जयघ.-कसायपा. पृ. १७५ श्रुतादिरूपः । (सप्तभं. पृ. १)। टि.)। २. हते घातिते समुत्पत्तिर्यस्य तदुत्तरसमु. मति-श्रुतादिरूप ज्ञान को स्वार्थाधिगम कहा जाता त्पत्तिकं कर्म अणुभागसंतकम्मे वा जमुवरिदं जह ण्णाणुभागसंतकम्मं तस्स हदसमुप्पत्तियकम्ममिदि स्वार्थानुमान-स्वयमेव निश्चितात् साधनात्साध्य- सण्णा ॥ (जयध. प्र. पृ. ३२२)। ३. हदसमुप्पत्तियज्ञानं स्वार्थानुमानम् । परोपदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव कम्मेत्ति वुत्ते पुविल्लमणुभागसंतकम्मं सव्वं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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