________________
स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिकनय ]
परितापकारिणी क्रिया के लक्षण हैं । स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिकनय - सव्वादिचउ संतं दव्वं खुगिहए जो खु ( द्र. 'उ' ) । णियदव्वादिसु गाही सो XXX ॥ ( ल. नयच. २५; द्रव्यस्व. प्र. नयच. १६७ ) ।
जो स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल श्रोर भाव इन चार से सत् द्रव्य को अपने द्रव्य क्षेत्रादि चार में ग्रहण करता है उसे स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय कहते हैं । स्वप्ननिमित्त १ वातादिदोसचत्तो पच्छिमरत्ते मयंक - रविपदि । णियम्हकमलपविट्ठ देक्खिय उम्म सुहसणं || घड तेल भंगादि रासह-करभादिसु प्रारुणं । परदेसगमणसब्वं जं देवखइ असुहसणं तं ॥ जं भासइ दुक्खसुहमुहं कालतए वि संजादं । तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दोभेदं । करि-केसरियहुदीणं दंसणमेत्तादि चिन्ह - [ छिण्ण- ] स उणं तं । पुत्रावरसंबंध सउ तं मालसउणोति ॥ ( ति प ४, १०१३-१६) । २. वात-पित्त - श्लेष्मदोषोदयरहितस्य पश्चिमरात्रिभागे चन्द्र-सूर्य - घरादि-समुद्रमुख प्रवेश नसकलमहीमण्डलोपगूहनादि शुभ - (चा. सा. 'शुभस्वप्नदर्शनात् ' ) घृत-तैलाक्तात्मीयदेहखर- करभारूढा दिग्गमनाद्यशुभस्वप्नदर्शनादागामिजीवितमरण-सुख-दुःखाद्याविर्भावकः स्वप्नः । (त. वा. ३, ३६, ३; चा. सा. पृ. ६) । ३. छिण्ण-माला सुमिणाणं सरूवं दट्ठूण भाविकज्जावगमो सुमिणं णाम महाणिमित्तं । (घव. पु. ६, पृ. ७३-७४) । ४. यं स्वप्नं दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य वा शुभाशुभं परिच्छिद्यते तत्स्वप्न निमि तम् । (मूला. वृ. ६–३० ) ।
१ वात-पित्तादि दोषों से रहित होते हुए पिछली रात में चन्द्र व सूर्य श्रादि को अपने मुख कमल के भीतर प्रवेश करते हुए स्वप्न में देखना, यह शुभ स्वप्न है तथ घी प्रथवा तेल से स्नान करना, गधा श्रथवा ऊंट आदि के ऊपर सवार होना और परदेश गमन करना इत्यादि को जो स्वप्न में देखा जाता है वह अशुभ स्वप्न है । इनको देख-सुनकर जो तीनों कालों में सम्भव दुःख-सुख श्रादि की सूचना की जाती है, इसे स्वप्ननिमित्त कहा जाता स्वप्नमहानिमित्त - देखो स्वप्ननिमित्त | स्वप्रत्ययोत्पाद स्वनिमित्तस्तावदनन्तानामगुरु
—
Jain Education International
लघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्था
१२०५, जैन-लक्षणावलो
[ स्वभावगति
नपतितया वृद्धा हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च । ( स. सि. ५-७; त. बा. ५, ७, ३) ।
श्रागम के प्रमाण से स्वीकार किये गये जो श्रनन्तानन्त गुरुलघु गुण हैं वे छह स्थान पतित वृद्धि और हानि से प्रवर्तमान हैं, उनके स्वभाव से जो धर्माधर्मादि द्रव्यों में उत्पान होता है वह स्वप्रत्यय उत्पाद कहलाता है । स्वप्राणातिपातजननी स्वप्राणातिपातजननी गिरिशिखरप्रपात ज्वलन प्रवेश जलप्रवेशास्त्रपाटनादिका (प्राणव्यपरोपणलक्षणा ) | ( त. भा. सिद्ध. वू. ६-६) ।
पर्वत के शिखर से गिरना, श्रग्नि में प्रवेश करना, जल में प्रवेश करना और प्रस्त्र के द्वारा विदारण करना, इत्यादि के करने को स्वप्राणातिपातजननी क्रिया कहा जाता है ।
स्वभाव - स्वेनात्मना भवनं स्वभावः । स्वेनात्मना असाधारणेन धर्मेण भवनं स्वभाव इत्युच्यते । (त. वा. ७, १२, २) ।
अपने असाधारण स्वभाव से होना, इसे स्वभाव कहा जाता है । - जो स्वभाव - प्रनित्य-अशुद्धद्रव्यार्थिक- गहइ एक्कसमए उपाय- वयद्धुवत्तसंजुत्तं । सो सम्भावअणिच्चो अशुद्धश्रो पज्जयत्थी ॥ (ल. नयच. ३०; द्रव्यस्व. प्र. नयच. २०२ ) ।
जो एक समय में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से संयुक्त पर्याय को ग्रहण किया करता है उसे स्वभाव श्रनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहते हैं । स्वभाव-अनित्य- शुद्धपर्यायार्थिक- सत्ताग्रमुक्खरूवे उप्पाद-वयं हि गिव्हए जो हु । सो दु सहावश्रणिच्चो भण्णइ ( द्र. 'गाही' ) खलु सुद्धपज्जायो ॥ ( ल. नयच. २६ ; द्रव्यस्व. प्र. नयच. २०१ ) । जो सत्ता को मुख्य न करके उत्पाद और व्यय को ग्रहण किया करता है उसे स्वभाव अनित्य- शुद्धपर्यायार्थिक नय कहते हैं ।
―
स्वभावगति - मारुत पावक परमाणु सिद्ध ज्योति
कादीनां स्वभावगतिः । (त. वा. ५, २४, २१) । वायु, अग्नि, परमाणु, सिद्ध और ज्योतिषी प्रादि की गति स्वभावप्रति होती है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org