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स्वक्षेत्रपरिवर्तन
२२०४, जंग-लक्षणावली स्विदेहपरितापकारिणी क्रिया
प्रमितावगाहनविकल्पाः तेनैव जीवेन यावत्स्वीकृताः. स्वजाति-उपचरित-असद्भून व्यवहारनयतत्सर्वं समुदितं स्वक्षेत्रपरिवर्तनम् । (गो. जी. जी. दळूणं पडिबिंबं भणदि (द्रव्यस्व 'लवदि') हु तं प्र. ५६०)।
चेव एस पज्जायो । सज्जाइ असन्भूप्रो उवपरियो कोई जीव सूक्ष्म निगोद जीव की जघन्य अवगाहना
णि यजाति पज्जापो।। (ल. नयच. ५६; द्रव्यस्व. से उत्पन्न होकर अपनी स्थिति प्रमाण जीवित रहने प्र. नयच. २२७) । के पश्चात् मरा और एक-एक प्रदेश अधिक के कम
प्रतिबिव को देखकर 'यह वही (मुखादि रूप) पर्याय से पूर्वोक्त प्रवगाहना से उत्पन्न हमा, इसी प्रकार है इस प्रकार जो कहा जाता है, इसे स्वजातिदो तीन प्रादि उत्तरोत्तर अधिक प्रदेशों के क्रम से पर्याय में-दर्पणगल मुख पर्याय में - स्वजाति पर्याय जन्म को प्रहण करते हुए पहामत्स्य की प्रवगाहना -साक्षात् मुखपर्याय - का प्रारोपण करने वाला पर्यन्त जो संख्यात घनांगल प्रमाण प्रवगाहना के प्रसद्भुत व्यवहार नय कहा जाता है। विकल्प हैं उनको उक्त जीव ने स्वीकार किया।
स्वदारमन्त्रभेद ...-देखो साकारमन्त्रभेद । १. स्वइस सबके समुदाय का नाम स्वक्षेत्रपरिवर्तन है।
दारमन्त्रभेदं च स्वकविश्रब्धभाषितान्यकथनं स्वक्षत्रसंसार --- लोकाकाशल्यपदेशास्यात्मनः
चेत्यर्थः । (बा. प्र. टी. २६३) । २. स्वदारे मन्त्रकर्मोदयवशात संहरण-विसर्पणधर्मणः हीनाधिक. भेदः स्वदारमन्त्रभेद -स्वदारमन्त्र (भेद) प्रकाप्रदेशपरिमाणावगहित्वं स्वक्षेत्रसंसारः। (त. वा.
शनम्, स्वकलविश्रब्यविशिष्टावस्थामन्त्रितान्य कथ६, ७, ३; चा. सा. पु. ८०)।
नमित्यर्थः । (माव. हरि. व. अ. ६, पृ. ८२१)।
१अपनी पत्नी के विश्वासपूर्ण कथन को दूसरों से जीव लोकाकाश के समान प्रसंख्यात प्रवेशों वाला
कहना, इसका नाम स्वदारमन्त्रभेद है। यह सत्याहै, उसके कर्मोदय के अनसार स्वभावतः इन प्रदेशों
णुव्रत का एक अतिचार है। में संकोच व विस्तार हा करता है, इस प्रकार
स्वदारसन्तोषव्रत-देखो ब्रह्मचर्य-अणुव्रत । १. हीनाधिक प्रवगाहना से युक्त होना, इसका नाम स्वक्षेत्रसंसार है।
स्वसृ-मातृ-सुताप्रख्या दृष्टव्याः परयोषितः । स्व.
दारैरेव सन्तोषः स्वदारव्रतमच्यते ॥ (वरांगच. स्वगुणस्तव-१. स्वतप-श्रुत-जात्यादिवर्णनं स्व
१५-११५) । २. माया-बहिणिसमारो दट्टव्वामो गुणस्तवः । (प्राचा. सा. ८-४३) । २. स्वकीय
परस्स महिलायो। सयदारे संतोसो अणुव्वयं तं तप-श्रुत-जाति कुलादिवर्णनं स्वगुणस्तवनम् । भाव
चउत्थं तु ॥ (धम्मर. १४६)। ३. सोऽस्ति स्वदारप्रा. टी. ६६)।
सन्तोषी योऽन्यस्त्री-प्रकटस्त्रियो। न गच्छत्यंहसो १ अपने तप, श्रुत और जाति प्रादि के वर्णन को
भीत्या नान्यर्गमयति त्रिधा ॥ (सा.प. ४-५२): स्वगुणस्तव कहा जाता है। इस प्रकार से यदि साध
स्वदारसन्तोष स्वदारेषु स्वभार्यायां स्वदारर्वा भोजन प्राप्त करता है तो वह स्वगुणस्तव नामक
सन्तोषो मथुनसंज्ञावेदनाशान्त्या देह-मनसोः स्वास्थ्याउत्पादनदोष से दूषित होता है ।
पादनम् । (सा. ध. स्वो. टी. ४-५१) । स्वचरितचर-जो सव्वसंगमक्को णण्णमणो अप्पणं पर स्त्रियों को बहिन, माता और पुत्री के समान सहावेण । जाणदि पस्सदि णियदं (ति. प. 'प्राद') देख कर अपनी पत्नी से ही सन्तोष करना, इसे सो सगचरियं चरदि जीवो।। (पंचा. का. १५८% स्वदारसन्तोष व्रत कहा जाता है। ति. प.६२२)।
स्वदेहपरितापकारिणी क्रिया-स्वदेहपरितापजो जीव समस्त परिग्रह से रहित होता हा पर कारिणी पुत्र-कलत्रादिवियोगदुःखभाराद्यतिपीडित. पदार्थों की ओर से मन को हटाकर उसे एक मात्र स्यात्मनस्ताडन-शिरस्फोटनादिलक्षणा । (त. भा. मात्मा में ही स्थिर करता है तथा स्वभाव से सिद्ध. बु. ६-६)। सदा प्रात्मा को ही जानता है देखता है वह स्वच- पुत्र अथवा स्त्री प्रादि के वियोग जनित दुःख के भार रितचर-वीतराग परम सामायिक का माराधन प्रादि से प्रतिशय पीड़ित प्राणी जो अपने को ताड़ित करने वाला होता है।
करता है व शिरको फोड़ता है, इत्यादि स्वधेह
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