Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 539
________________ स्वभावज्ञान] स्वभावज्ञान केवलमिदियर हियं सहावणाणं त्ति । (नि. सा. ११) । इन्द्रियों से रहित ( प्रतीन्द्रिय) व असहाय --- प्रालोक प्रादि किसी बाह्य निमित्त की प्रपेक्षा न करने वाला - जो केवलज्ञान है उसे स्वभावज्ञान कहा जाता है । १२०६, जैन- लक्षणावलो प्रसहायं तं स्वभावदर्शन - केवलमिदियरहियं प्रसहायं तं सहावमिदि भणिदं (नि. सा. १३) | इन्द्रियों से रहित (अतीन्द्रिय) व असहाय जो केवलदर्शन है उसे स्वभावदर्शन कहा जाता है । स्वभाव पर्याय - १. कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भणिदा ।। ( नि. सा. १५ ) ; ग्रण्ण णिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जावो । (नि. सा. २८) । २. गुरुलघु विकाराः स्वभावपर्यायाः । ते द्वादशधा षड्वृद्धिरूपा: षड्हानिरूपा: । ( श्रालाप. प. पू. १३४ ) : १ कर्म की उपाधि से रहित जो भी पर्यायें हैं वे सब स्वभावपर्याय कहलाती हैं । २ गुरुलघु गुणों के छह प्रकार की हानि व छह प्रकार को वृद्धिरूप विकारों को स्वभावपर्याय कहा जाता है । स्वभावमार्दव - १. मृदोर्भावः मार्दवम्, स्वभावेन मार्दवं स्वभावमार्दवम्, उपदेशानपेक्षम् । ( स. सि. ६-१८) । २. उपदेशानपेक्षं स्वभावमार्दवम् । मृदोर्भावः कर्म व मार्दवम्, स्वभावेन मार्दवं स्वभावमार्दवम्, उपदेशानपेक्षमित्यर्थ: । (त. वा. ६, १८, १ ) | ३. उपदेशानपेक्षं मार्दवं स्वभावमार्दवम् । (त. इलो. ६-१८) । १ उपदेश की अपेक्षा न करके जो स्वभाव से मृदुता ( सरलता) हुआ करती है उसे स्वभावमार्दव कहा जाता है । स्वभाववाद - १. को करइ कंटयाणं तिक्खत्तं मिय- विहंगमादीणं । विविहत्तं तु सहाश्रो इदि सव्वं पिय सहाप्रोति ॥ ( गो . क. ८८३) । २. सव्वं सहावदो खलु तिक्खत्तं कंटयाण को करई । विविहत्तं णर-मिय-पसु - विहंगमाणं सहावो य ॥ ( अंगप २- २३, पृ. २७८ ) । १ कांटों को तीक्ष्णता को कौन करता है, तथा मृग और पक्षियों श्रादि की विविधता को कौन करता है ? कोई भी नहीं, वह सब स्वभाव से ही हुधा Jain Education International [ स्वयंबुद्ध करता है । इस प्रकार के कथन को स्वभाववाद कहा जाता है स्वभाव विप्रकृष्ट - १. स्वभावविप्रकृष्टा मन्त्रौषधिशक्ति-चित्तादयः । ( प्रा. मी. वसु. वृ. ५) । २. सूक्ष्मा: स्वभावविप्रकृष्टाः परमाण्वादयः । ( न्यायदी. पृ. ४१ ) । र मंत्र, श्रौषधि, शक्ति और चित्त प्रादि स्वभावविप्रकृष्ट स्वभावतः दूरवर्ती माने जाते हैं । २ सूक्ष्म परमाणु आदि को स्वभावविप्रकृष्ट कहा जाता है । स्वभावहीन - स्वभावहीनं यद्वस्तुनः प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध स्वभावमतिरिच्यान्यथावचनम् । यथा - शीतोऽग्निः, मूर्तिमदाकाशमित्यादिः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ८८२, पृ. ४८३ ) । वस्तु के प्रत्यक्षादि प्रमाण से सिद्ध स्वभाव को छोड़ कर अन्य प्रकार से कथन करने को स्वभावहीन कहा जाता है। जैसे -- श्रग्नि शीतल है, श्राकाश मूर्तिक है, इत्यादि । यह सूत्र के ३२ दोषों में १६वां है। स्त्रनपूरण - येन केनचित्प्रकारेण स्वभ्रपूरणवदुदरगर्तमनगारः पूरयति स्वादुनेतरेण वेति स्वभ्रपूरणमिष्यते । (त. वा. ६, ६, १६) । जिस प्रकार गड्ढे को कंकड़, पत्थर अथवा मिट्टी श्रादि जिस किसी भी वस्तु के द्वारा भर दिया जाता है— उसके भरने के लिए श्रमुक वस्तु ही होना चाहिए, ऐसी अपेक्षा नहीं रहती - उसी प्रकार साधु उदर रूप गड्ढे को निर्दोष किसी भी भोजन से पूरा करता है-वह स्वादिष्ट अथवा नीरस श्रादि का विचार नहीं करता इसलिए स्व ( गड्ढे ) के समान भरे जाने के कारण उसके भोजन को स्वभ्रपूरण कहा जाता है । स्व-मनोज्ञ - स्वस्य मनोज्ञाः समान समाचारीकतया अभिरुचिताः स्वमनोज्ञा: । ( स्थाना. अभय वृ. १७४) । समान समाचारी वाले होने से जो श्रपने लिए रुचिकर होते हैं वे स्व-मनोज्ञ कहलाते हैं । स्वयं बुद्ध-- स्वयम् आत्मनंव सम्यग्वरबोधिप्राप्त्या बुद्धा मिथ्यात्व-निद्रापगमसम्बोधेन स्वयं सम्बुद्धाः । ( ललित. वि. पू. २० ) । मिथ्यात्वरूप निद्रा के विनष्ट हो जाने से प्राप्त हुए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554