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स्पर्शनक्रिया ]
१२००,
अवस्थाविशेषस्य वैचित्र्यात् त्रिकालविषयोपश्लेषनिश्चयार्थ स्पर्शनम् । (त. वा. १, ८, ५) । ३. तदेव त्रिकालगोचरं स्पर्शनम् । ( न्यायकु. ७६, पृ. ८०३; लघीय. प्रभय. वृ. ७६, पू. ६६ ) । ४. क्षेत्र - मेव त्रिकालगोचरं स्पर्शनम् । (त. वृत्ति श्रुत. १ - ८ ) । २ श्रवस्थाविशेष की विचित्रता से जीव का तोनों कालों में कहाँ तक जाना श्राना सम्भव है, इसका विचार जिस श्रनुयोगद्वार में किया जाता है उसे स्पर्शन कहा जाता है । स्पर्शनक्रिया- - देखो जीवस्पर्शन व प्रजीवस्पर्शन क्रिया । १. प्रमादवशात्स्पृष्टव्य सञ्चेतनानुबन्धः स्पर्शन क्रिया । ( स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ६ ) 1 २. सचेतनानुबन्धो यः स्पृष्टव्येऽतिप्रमादिनः । सा स्पर्शन क्रिया ज्ञेया कर्मोगदानकारणम् ।। (ह. पु. ५८-७०)। ३. X X X स्पर्शे स्पृष्टधीः स्पर्शनक्रिया ॥ ( त. इलो. ६, ५, १२) । ४. प्रमादपरतंत्रस्य कमनीय कामिनीस्पर्शनानुबन्धः स्पर्शनक्रिया ( त वृत्ति श्रुत. ६-५) ।
१ प्रमाद के वश होकर स्पर्श करने के योग्यचेतन-अचेतन - पदार्थ के चिन्तन की निरन्तरता का नाम स्पर्शनक्रिया है । स्पर्शनाम- १. यस्योदयात्स्पर्श प्रादुर्भावस्तत्स्पर्शनाम । ( स. सि. ८-११; त. वा. ८, ११, १० ) 1 २. श्रदारिकादिशरीरेषु यस्य कर्म्मण उदयात् कठिनादिः स्पर्शविशेषः समुपजायते तत् स्पर्श नामाष्ट विधम् । ( त. भा. हरि व सिद्ध. वृ. ८ - १२ ) । ३. जस्स कम्मक्खंघस्स उदएण जीवसरीरे जाइपडिणियदो पासो उप्पज्जदि तस्स कम्यक्चस्स पाससण्णा । ( धव. पु. ६, पृ. ५५ ) । ४. स्पर्श नस्यो. दयाद्यस्य प्रादुर्भावेन भूयते । स्पर्शनाम भवत्येतत् प्रविभक्तमिवाष्टधा ।। ( ह. पु ५८ - २५६ ) ५. यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन जीवशरीरे जातिप्रतिनियतः स्पर्शः उत्पद्यते तत्स्पर्शनाम । (मूला वृ. १२, १४) । ६. यदुदयात्स्पर्शोत्पत्तिस्तत्स्पर्शनाम । (भ. प्रा. मूला. २१२४ ) । ७ यत्पाकेन स्पर्श उत्पद्यते स स्पर्श प्रष्टप्रकारो भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ८. यस्योदयात् स्पर्शप्रादुर्भावः तत् स्पर्शनाम । ( गो . क. जी. प्र३३ ) । १ जिस कर्म के उदय से शरीर में स्पर्श उत्पन्न होता है उसे स्पर्श नामकर्म कहते हैं । २ जिस कर्म
८-११) ।
जैन-लक्षणावली
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[स्पर्शकेन्द्रिये हाज्ञान
के उदय से श्रदारिक आदि शरीरों में कठिन प्रादि स्पर्शविशेष उत्पन्न होता है वह स्पर्श नामकर्म कहलाता है।
स्पर्शनेन्द्रियनिरोध - १. जीवाजीवसमुत्थे कक्कड मउगादिश्रदृभेदजुदे । फासे सुहे य असुहे फासणिरोहो असंमोहो । ( मूला १ - २१ ) । २. जीवाजीवोभयस्पर्शे कर्कशाद्यष्टभेदके । शुभेऽशुभेतिमध्यस्थं मनःस्पर्शाक्षनिर्जयः ॥ ( श्राचा. सा. १-३२ ) ।
१ जो आठ प्रकार का स्पर्श जीव-जीव में सम्भव है वह चाहे सुखकर हो अथवा दुःखकर, उसमें संमोह - हर्ष या विषाद की प्राप्त न होना; इसे स्पर्शन इन्द्रिय का निरोध कहा जाता है । स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्नावग्रह - कक्खड मउग्र गरुन
- गिद्ध - लुक्ख-सीदुह दव्वाणि फासिंदियस्स विसप्रो । एदेसु दव्वेसु संपत्त-फास्सिदियसु जं णामुपज्जदितं फासि दियवंजणोग्गहो । ( धव. पु. १३, पृ. २२५ ) ।
कर्कश आदि आठ प्रकार का स्पर्श स्पर्शन इन्द्रिय का विषय है, इन द्रव्यों के स्पर्शन इन्द्रिय को प्राप्त होने पर जो ज्ञान होता है उसे स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह कहते हैं।
स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावरणीय - तस्स (फासिदिय वंजणोग्गहस्स) जमावारयं कम्मं सं फासिदियवंजणोग्गहावरणीयं । ( धव. पु. १३, पृ. २२५ ) । स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह के प्रावारक कर्म को स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावरणीय कहते हैं । स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रह - फासिदियदो एत्तियमद्वाणतरिय दिव्वह्निजं णाणमुप्पज्जदि फासविसयं तं फासिदिय प्रत्यग्गहो। (घव. पु. १३, पृ. २२८ ) । स्पर्शन इन्द्रिय से इतने अध्वान का अन्तर करके स्थित द्रव्य के विषय में जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह स्पर्शनेन्द्रिय प्रर्थावग्रह कहलाता है । स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रहावरणीय तस्स ( फासिदियप्रत्थोग्गहस्स) जमावारयं कम्म तं फार्सिदियप्रत्थोगहावरणीयं णाम । ( धब. पु. १३, पृ. २२८ ) । स्पर्शनेन्द्रियार्थाग्रह के श्रावारक कर्म को स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रहावरणीयकर्म कहा जाता है । स्पर्शनेन्द्रियेहाज्ञान - फार्सिदिएण णिद्धादिकासमादाय किमेसो मयणफासो कि वज्जले व फासो कि कुमारिगिरफासो कि पिसिदमासफासो त्ति एदेसु
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