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स्थितिबन्ध]
११६६, जेन-लक्षणावलो
स्थित्यावीचिकामरण
बन्धः । (स्थाना. अभय. व. २६६; समवा. अभय. दातृशुद्धोया स्थित्वा समपदद्वयम् । निरालम्बं करव. ४)। १२.xxxअविच्युतिस्तस्मात् । (अन. द्वन्द्वभोजनं स्थितिभोजनम ।। (प्राचा. मा. १.४५)। ष. २-३६); अविच्युतिरप्रच्यवनम् । कस्मात् ? १ भित्ति प्रादि के प्राश्रय के विना समान पांवों से तस्माद् ज्ञानावरणादिलक्षणादात्मनः स्वभावात् । खड़े रहकर अपने पादप्रदेशरूप, उत्सृष्टपतनप्रदेशरूप केषाम् ? कर्मणाम । (अन. ध. स्वो. टी. २-३६)। और परोसने वाले के स्थानस्वरूप तीन प्रकार की १३.xxx स्थितिः कालावधारणम् ।। (पंचा- शद्ध भमि में पाणिपात्र से भोजन को ग्रहण करना; घ्या. २-६३३)।
इसे स्थितिभोजन कहा जाता है। १ कर्म का अपने स्वभाव से च्युत न होना, इसका स्थितिमोक्ष - प्रो कड्डिदा वि का ड्डिदा वि अण्णनाम स्थिति है। जिस प्रकार बकरी, गाय और पडि सकामिदा अघट्ठिदीए णिज्जरिदा वि द्विदी भंस प्रादि के दूध की स्थिति अपने मधरता रूप ठिदिमोक्खो। (धव. पू १६, प. ३३८)। स्वाद से च्युत न होना है उसी प्रकार ज्ञानावर- अपकषित, उत्कषित, अन्य प्रकृति में संक्रामित की णादि कर्मों की स्थिति पदार्थ का ज्ञान प्रादि न होने गई और अधःस्थिति से निर्जीण भी स्थिति को देना है। ३ कर्ता के द्वारा ग्रहण को गई कर्माशि । स्थितिमोक्ष कहा जाता है। का अपने प्रात्मप्रदेशों में अवस्थित रहना, इसे स्थितिविपरिणामना-ठिदी प्रोवटिजम्माणा वा स्थिति कहा जाता है। इसके काल का विभाग उव्वट्टिज्जमाणा वा अण्णंपडि संकामिज्जमाणा वा जीव के परिणामानुसार होता है।
विपरिणामिदा होदि । (धव. पु १५, पृ. २८३) । स्थितिबन्धस्थान-बध्यत इति बन्धः, स्थिति- अपवर्तमान, उद्वर्तमान अथवा अन्य प्रकृतियों में रेव बन्धः स्थितिबन्ध, स्थितिबन्धस्य स्थानमब- संक्रमण कराई जाने वाली स्थिति विपरिणामित स्थाविशेषः इति यावत्। (धव. पु. ११, पृ. १४२); कहलाती है। बध्धन इनिबन्ध, स्थितिश्चापी बन्धश्च स्थिति- स्थितिसंक्रम---१. ठिइस कमो ति वुच्चइ मूलत्तरबन्धः, तम्य स्थान विशेषः स्थितिबन्धस्थानम, पाबा- पगईउ य जा हि ठिई। उबट्रियाउ प्रोवट्रिया व धस्थानमित्यर्थः । अथवा बन्धन बन्धः, स्थितेबंन्धः पगई निया वऽण्णं ॥ (कर्मप्र. सं. क. २८)। स्थिति बन्धः, सोऽस्मिन् तिष्ठतीति स्थितिबन्धस्था- २. जा टिदी प्रोकडिज्जदि वा उक्कड्डिज्जदि वा नम् । (धव. पु. ११, पृ. १६२); स्थितयो बध्यन्ते अण्णपडि संकामिज्जइ वा सो ठिदिसंकमो। एभिरिति करणे घजुत्पत्तेः कर्मस्थितिबन्धकारण- (कषायपा. चू. पृ. ३१०) । ३. प्रोकड्डिदा वि ट्ठिदी परिणामानां स्थितिबन्ध इति व्यपदेशः । तेषां स्था- टिदिसक मो, उक्कड्डिदा वि द्विदी टिदिसंकमो, अण्णनानि अवस्थाविशेषाः स्थितिबन्धस्थानानि । (धब. पडि णीदा वि द्विदी टिदिसंकमो होदि । (धव. पु. पु. ११, पृ. २०५); बध्यते इति बन्धः, स्थिति- १६, पृ. ३४७)। ४. जा ट्ठिति उब्वट्टण-प्रोवट्टणश्वामौ बन्धश्च स्थितिबन्धः, तस्य स्थानमवस्थावि- अण्ण पगतिसंकमणपामोग्गा सा उवट्टिता ठिति तितिशेष स्थितिबन्धस्थानम् । (धव. पु. ११, पृ. संकमो वुच्चति । (कर्मप्र. चू. सं. क. २८)।
५. मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा स्थितेर्यदुत्कर्षणं जो बांधा जाता है उसे बन्ध या स्थितिबन्ध और उसके अपकर्षण वा प्रकृत्यन्तरस्थिती वा नयनं स स्थितिस्थान (विशेष) को -प्राबाधा-स्थान को -स्थिति- संक्रमः । (स्थानां. अभय.व २६६)। बन्धस्थ न कहते हैं । अथवा जिन परिणामों के द्वारा १मल व उत्तर प्रकृतियों की जो स्थिति उतित या स्थितियां बांधी जाती हैं उन परिणामों का नाम अपतित की जाती है अथवा अन्य प्रकृति को प्राप्त स्थितिबन्ध है, उनके स्थानों-अवस्थाविशेषों--को कराई जाती है उसे स्थितिसंक्रम कहा जाता है। स्थितिबन्धस्थान कहा जाता है।
स्थित्यावीचिकामरण -स्याः (स्थिते:) वीचय स्थितिभोजन -१. अंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डाइ- इव क्रमेणावस्थिताया विनाशादात्मनो भवति स्थिविवज्जणेग समपायं । पडिसुद्धे भूमितिए असणं त्यावीचिकामरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५) । ठिदिभोयणं णाम ।। (मूला. १-३४) । २. स्त्रपात्र- समुद्र की तरंगों के समान निषेकक्रम से अवस्थित
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