Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 530
________________ स्थिरत्व ११९७, जैन-लक्षणावला (स्थूलसूक्ष्म उस प्रायुस्थिति का जो प्रत्येक समय में विनाश हरि. व. १८२)। २. एतेष्वेव क्षपणादिषु सीदतां होता है-एक-एक निषेक क्रम से निजीर्ण होता है, तत्र विशेषतः स्थापना स्थिरीकरणम् । (व्यव. भा. इसे प्रात्मा का स्थिति प्रावीचिमरण कहा जाता है। मलय. वृ. १-६५)। स्थिरत्व - तह चेव एयबाहगचितारहियं थिरत्तणं १ धर्म से खेद को प्राप्त होते हुए जीवों को उसी में नेय । (योगवि. ६)। स्थापित करना, इसे स्थिरीकरण कहा जाता है। स्थानादि योगों का परिपालन करते हुए शुद्धिविशेष स्थूल – १. तनुत्वद्रव्य भावाच्च छेद्यमानानुके प्राश्रय से बाधक चिन्ता से मुक्त हो जाना, बन्धि यत् । तैलोदक रस-क्षीर-घृतादि स्थूलमुच्यते ॥ इसका नाम स्थिरत्व है। स्थानादि ५ योगों में से (वरांगच २६-१७)। २. द्रवद्रव्यं जलादि स्यात जो प्रत्येक के इच्छा व प्रवत्ति प्रादि ४.९ भेद स्थूलभेदनिदर्शनम् । (म. पु. २४-१५३; जम्ब. च. निदिष्ट किए गए हैं उनमें यह तीसरा है। ३-५२)। स्थिरनामकर्म-१. स्थिरभावस्य निर्वर्तक स्थिरः १ जो तेल, पानी, रस, दूध और घी प्राति कृशता नाम । (स. सि. ८-११ त. श्लो. ८-११, भ. और पतलेपन के कारण छेदे जाने पर भी फिर से प्रा. मूला. २१२४)। २. स्थिरत्वनिर्वर्तकं स्थिर सम्बद्ध हो जाते हैं उन्हें स्थूल कहा जाता है । नाम । (त. भा. ८-१२) । ३. स्थिरभावस्य निव. स्थूल ऋजुसूत्रनय - १. मणवाइयपज्जायो मणः तक स्थिरनाम । यदुइयात् दुष्करोपवासादितपस्कर- सु ति सगढ़िदीसु वटुंगो। जो भणइ तावकालं णेऽपि अङ्गोपाङ्गानां स्थिरत्वं जायते तत्स्थिरनाम। सो थलो होइ रिउसुत्तो॥ (ल. नयच. ३९; द्रव्य(त. वा. ८, ११, ३४)। ४ यस्योदयात् शरीरा- स्व. प्र नयच. २११) । २. स्थूल ऋजसूत्रः- यथा वयवानां स्थिरता भवति शिरोऽस्थि-दन्तादीनां तत् मनुष्यादिपर्यायस्तदायुःप्रमाणकाले तिष्ठति । (कातिस्थिरनाम । (त. भा. हरि. व सिद्ध. व. ८-१२; के. टी. २७४)। धा. प्र. टी. २३, प्रज्ञाप. मलय. व. २६३, पृ. १जो नय अपनी स्थितियों में रहने वाली मनध्य ४७४) । ५. जस कम्मस उदएण रस-रुहिर-मेद- प्रादि पर्याय को उतने काल तक मनुष्य कहता है मज्जट्रि-मांस-सुक्काणं थिरत्तमविणासो अगलणं वह स्थल ऋजसूत्रनय कहलाता है।। होज्ज तं थिरणामं । (धव. पु. ६, पृ. ६३); जस्स स्थूलकाय -xxx इयरा पुण थूलकाया य॥ कम्मस्सुदएग रसादीणं सगसरूवेण केत्तियं पि काल- (कातिके. १२७)। मवट्ठाणं होदि तं थिरणाम । (धव. पु. १३, पृ. सूक्ष्मकाय जीवों से भिन्न स्थूलकाय जीव होते हैं, ३६५)। ६. यस्य कर्मण उदयात् रस-रुविर-मेद- अर्थात् जो जीव पृथिवी, जल, अग्नि और वायु के मज्जास्थि मांस-शुक्राणां सप्तधातूनां स्थिरत्वं भवति द्वारा रोके जा सकते हैं वे स्थूलकाय कहलाते हैं। तत् स्थिरनाम । (मूला. वृ. १२-१६५) । ७. यतः स्थलदोष-देखो बादर आलोचनादोष।। स्थिराणां दन्ताद्यवयवानां निष्पत्तिर्भवति तत्स्थिर- स्थूलवधादि-स्थूलहिंस्याद्याश्रयत्वात् स्थूलानामपि नाम । (समवा. अभय. वृ. ४२)। ८. स्थिरत्व- दुर्दृशाम् । तत्त्वेन वा प्रसिद्धत्वावधादि स्थूलमिष्यते ।। कारणं स्थिरनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। (सा. घ. ४-६)। १ स्थिरता के उत्पादक कर्म को स्थिरनामकर्म जो वध (हिंसा) प्रादि स्थल हिंस्य--मारे जाने कहते हैं। ३ जिसके उदय से दुष्कर तप का प्राच- वाले प्राणियों-प्रादि (भाष्य व मोष्य प्रादि) के रण करने पर भी अंग-उपांगों की स्थिरता रहती प्राश्रित हैं अधवा जो स्थूल मिथ्यादृष्टियों के यहां है उसे स्थिरनामकर्म कहा जाता है। ४ जिसके भी उस रूप से प्रसिद्ध हैं उन बघ प्रादि को स्थल उदय से शरीर के अवयवभूत शिर, हड्डियों और माना जाता है। दांतों प्रादि में स्थिरता होती है वह स्थिरनामकर्म स्थूलसूक्ष्म-१. चक्षुर्विषयमागम्य ग्रहीतुं यन्न कहलाता है। शक्यते । छायातप-तमोज्योत्स्नं स्थूलसूक्ष्मं च तद्भस्थिरीकरण-देखो स्थितिकरण । १. स्थिरीकरणं वेत् ।। (वरांगच. २६-१८)। २. स्थूलसूक्ष्मा: तु धर्माद्विषोदतां सतां तत्र स्थापनम् । (दशवै. नि. पून याश्छाया-ज्योत्स्नातपादयः । चाक्षषत्वेऽप्यसंहा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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