Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 522
________________ स्थापनानारक] ११८६, जैन-लक्षणावलो [स्थापनाप्रतिक्रमण के प्रकार से स्थित मूर्ति का नाम स्थापना- चित्त कम्मे वा । सब्भावमसम्भावं ठवणापिण्डं वियानमस्कार है। णाहि ।। (प्रोधनि. ३३५) । स्थापनानारक-सो एसो त्ति बद्धीए अप्पिदस्स प्रक्ष, वराटक, काष्ठ, प्रस्त अथवा चित्रकर्म इनमें प्रणप्पिदेण एयत्तं कादण सब्भावासब्भावसरूवेण सदभाव व प्रसवभाव रूप स्थापनापिण्ड जानना ठविदं ठवणणेरइयो। (धव. पू. ७, प. ३०)। चाहिए। अभिप्राय यह है कि यदि एक ही प्रक्ष 'वह (नारक) यह है' इस प्रकार बुद्धि से विवक्षित प्रादि में पिण्ड की कल्पना की जाती है तो उसे नारक का अविवक्षित के साथ अभेद करके जो प्रसभावस्थापनापिण्ड कहा जाता है और यदि तदाकार या अतदाकार रूप से स्थापना की जाती तीन प्रादि प्रक्षादिकों में पिण्ड की कल्पना है उसे स्थापनानारक कहते हैं। की जाती है तो उसे सद्भावस्थापनापिण्ड जानना स्थापनानिर्देश--निर्देशः स्थाप्यमानः स्थापनानि- चाहिए। देशः, स्थापनाया विशेषाभिधानं वा स्थापनानिर्देशो स्थापनापुरुष -- स्यापनापुरुषः काष्ठादिनिवतितो यथेयं कामदेवस्य स्थापनेति । (प्राव. नि. मलय. जिनप्रतिमादिकः। (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. ५५, पृ. व. १४०)। १०२-३)। स्थापित किये जाने वाले निर्देश का नाम स्थापना- काष्ठ आदि से जिन जिनप्रतिमा आदि का निर्माण निर्देश है। अथवा स्थापना के विशेष कथन को किया जाता है उन्हें स्थापनापुरुष कहा जाता है । स्थापनानिर्देश जानना चाहिए, जैसे यह कामदेव स्थापनापूर्वगत - सो एसोत्ति एयत्तेण संकप्पिषकी स्थापना है। दवं ठवणापूवगयं । (घव. पु. ६, पृ. २११) । स्थापनानुयोग १. ठवणाए जोऽणुप्रोगोऽणुप्रोग 'वह (पूर्वगत) यह है' इस प्रकार अभेदरूप से जिस इति वा ठविज्जए जं च । जा वेह जस्स ठवणा द्रव्य की कल्पना की जाती है उसे स्थापनापूर्वगत जोग्गा ठवणाणुरोगो सो ।। (विशेषा. १३६७; कहते हैं। प्राब. नि. मलय. वृ. १२६ उद.)। २. स्थापना स्थापनाप्रकृति ---जा सा ठवणपयडी णाम सा अक्षनिक्षेपादिरूपा, तत्र योऽनुयोगं कुर्वन् स्थाप्यते कटकम्मेसु वा चित्तकस्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पसोऽनुयोगानुयोगवतोरभेदोपचारात् स्थापनानुयोगः, कम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहस्थापना चासावनुयोगश्च स्थापनानुयोगः, यदि वा कम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडस्थापनाया अनुयोगो व्याख्या स्थापनानुयोगः, कम्मेसु वा अक्खो वा वराडपो वा जे चामण्णे द्रुवअथवा यः स्थापनाया अनुकलो योगः सम्बन्धः, णाए ठविज्जति पगदि त्ति सा सव्वा ठवणपयडी किमक्तं भवति ? यस्य स्थापना स्थाप्यमाना देश- णाम । (षट्खं. ५, ५, १०-घव. पु. १३, पृ. कालद्यपेक्षया युक्ता प्रतिभासते इति, सः स्थापनान- २०१)। योगः । (प्राव. नि. मलय. वृ. १२६) । काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोत्तकर्म, लेप्यकर्म, लेणकर्म, २ प्रक्षनिक्षेपादिस्वरूप स्थापना में अनुयोग के करने शैलकर्म, गृहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म अथवा भेंडवाले जिसकी स्थापना की जाती है उसे अनयोग कर्म; इनमें तथा प्रक्ष, वराटक व अन्य भी जो और अनुयोगवान् में अभेद का उपचार करने से 'प्रकृति है' इस प्रकार से स्थापना द्वारा स्थापित स्थापनानयोग कहा जाता है। अथवा स्थापना के किए जाते हैं उस सबका नाम स्थापनाप्रकृति है। अनुयोग (व्याख्या) को स्थापनानुयोग समझना स्थापनाप्रतिक्रमण-१. अशुभपरिणामानां विचाहिए। अथवा स्थापना के अनुकूल जो योग शिष्टजीवद्रव्यानुगतशरीराकारसादृश्यापेक्षया चित्रा(सम्बन्ध) हो उसे स्थापनानुयोग कहा जाता है। दिरूपं स्थापितं स्थापनाप्रतिक्रमणम् । (भ. प्रा. प्रर्थात स्थापित की जाने वाली जिसकी स्थापना विजयो. ११६, प. २७५-७६); असंयतमिथ्यादेश-काल प्रादि की अपेक्षा योग्य प्रतीत होती है दृष्टिजीवप्रतिबिम्बपूजादिषु प्रवृत्तस्य तत्प्रतिक्रमणं उसे स्थापनानुयोग कहते हैं। स्थापनाप्रतिक्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. ४२१, पृ. स्थापना पिण्ड-अक्खे वराडए वा कठे पोत्थे व ६१५) । २. सरागस्थापनाभ्यः परिणामनिवर्तनं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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