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स्थापनाक्षर ]
कम्मे वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मे वा भेंडकम्मेसु वा प्रक्खो वा वराडो वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जति कदि ति सा सब्बा ठवणकदी णाम । ( षट्खं. ४, १, ५२ -- धव. पु. है, पू. २४८ ) ।
काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोत (वस्त्र) कर्म, लेप्यकर्म लेण (पर्वत) कर्म, शैल ( पाषाण) कर्म, गृहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म और भेंडकर्म तथा प्रक्ष व वराटक प्रादि अन्य भी जो 'कृति' इस प्रकार से स्थापना द्वारा स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनाकृति कहलाती है ।
११८, जंन-लक्षणावली
स्थापनाक्षर - १. एदमिदमक्खरमिदि प्रभेदेण बुद्धीए जा दुविदा लीहादव्वं वा तं ठवणक्खरं णाम । (घव. पु. १३, पु. २६५ ) । २. पुस्तकेषु तत्तद्देशानुरूपतया लिखित संस्थानं स्थापनाक्षरम् । (गो. जी. मं. प्र. व जी. प्र. ३३३ ) ।
१ 'यह वह अक्षर है' इस प्रकार से बुद्धि के द्वारा प्रभेदरूप से जो स्थापना की जाती है उसे प्रथवा रेखा द्रव्य को स्थापनाक्षर कहा जाता है । २ विभिन्न देशों के अनुसार पुस्तकों में जो प्राकार लिखा जाता है उसका नाम स्थापनाक्षर है । स्थापनाचतुविशति -स्थापनाचतुर्विंशतिश्चतुर्वि शतेः केषांचित्स्थापना ( श्राव. भा. मलय. वृ. १६२, पृ. ५८९ ) ।
किन्हीं की चतुविशति के रूप से जो स्थापना की जाती है उसे स्थापना चतुविशति कहा जाता है । स्थापना जिन--- X X X ठवणजिणा पुण जिणि
पडिमा । (चैत्यव. भाष्य ५१ ) । जिनेन्द्र की प्रतिमानों को स्थापनाजिन कहा जाता है ।
स्थापनाजीव- १. अक्षनिक्षेपादिषु जीव इति वा मनुष्यजीव इति वा व्यवस्थाप्यमानः स्थापनाजीवः । ( स. सि. १-५; त. वृत्ति श्रुत. १-५ ) । २. यः काष्ठ-पुस्त - चित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते जीव इति स स्थापनाजीवो देवताप्रतिकृतिवदिन्द्रो रुद्रः स्कन्द विष्णुरिति । ( त. भा. १-५) । ३. एवं स्थापना जीवाकारा प्रतिकृतिः । × × × य: आकारः कराद्यवयवसन्निवेशः स स्थापनाजीवः । ( त. भा. हरि वू. १-५) । ४. स जीवाकारो
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[स्थापनानमस्कार
रचित सन् स्थापनाजीवोऽभिधीयते । एतदुक्तं भवति - शरीरानुगतस्यात्मनो य श्राकाशे दृष्टः स तत्रापि हस्तादिको दृश्यते इति कृत्वा स्थापनाजीवोSभिधीयते । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-५) ।
१ प्रक्षनिक्षेप प्रावि में 'यह जीव है या मनुष्यजीव है' इस प्रकार से जिसकी व्यवस्था या अध्यारोप किया जाता है उसे स्थापनाजीव कहते हैं । २ काष्कर्म, पुस्तककर्म, चित्रकर्म और प्रक्षनिक्षेप आदि में इन्द्र, रुद्र, स्कन्द ( कार्तिकेय) प्रथवा विष्णु इस प्रकार की देवता की मूर्ति के समान जो 'जीव है' इस प्रकार से स्थापित किया जाता है उसे स्थापनाजीव कहते हैं ।
स्थापनाद्रव्य - १ यत् काष्ठ-पुस्त - चित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते द्रव्यमिति तत् स्थापनाद्रव्यम्, देवताप्रतिकृतिवदिन्द्रो रुद्रः स्कन्दो विष्णुरिति । ( त. भा. १-५) । २ यत् पुनः स्थाप्यते काष्ठादिषु तत् स्थापनाद्रव्यं विशिष्टाकारमिति । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-५) ।
१ काष्ठकर्म पुस्तकर्म, चित्रकर्म और प्रक्षनिक्षेप आदि में इन्द्रादि देवताओं की मूर्ति के समान 'द्रव्य है' इस प्रकार से जिसकी स्थापना की जाती है वह स्थापनाद्रव्य कहलाता है ।
स्थापनानन्त - जंतं ठवणाणंतं णाम तं कटुकम्मेसु वा चित्तकम्मे वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा
कम्मे वा सेलकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा गिहकम्मे वा भेंडकम्मे वा दंतकम्मेसु वा अक्खो वा वराडयो वा जे च अण्णे ठवणाए ठविदा प्रणतमिदि तं सव्वं ठवणाणंत णाम । ( धव. पु. ३, पृ. ११, १२) ।
काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोतकमं, लेप्यकर्म, लेनकर्म, शैलकर्म, भित्तिकर्म, गृहकर्म, भेण्डकर्म और दन्तकर्म तथा अक्ष व वराटक एवं अन्य भी जो 'अनन्त है' इस प्रकार से स्थापना द्वारा स्थापित किये जाते हैं, उस सबका नाम स्थापनानन्त 1 स्थापनानमस्कार - नमस्कारव्यावृतो जीवस्तस्य कृताञ्जलिपुटस्य यथाभूतेनाकारेणावस्थिता मूर्तिः स्थापनानमस्कारः । ( भ. प्रा. विजयो. ७५३) । जो जीव नमस्कार में प्रवृत्त होकर दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर रखे हुए है उसकी उस प्रकार
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