Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 525
________________ स्थापनासामायिक ] प्र. व जी. प्र. ३६७-६८ ) । ५: मणुऽण्ण मणुण्णासु इत्थि - पुरिसाइप्रायारठावणासु eg - व - चित्तादिमासु राय-दोसणिट्टी, इणं सामाइयमिदि ठाइज्जमानयं किचि वत्थु वा ठावणासामाइयं । ( श्रंगप. पू. ३०५ ) । १ समस्त सावद्य की निवृत्तिरूप परिणाम से युक्त श्रात्मा के साथ एकता को प्राप्त हुधा जो शरीर है उसके प्रकार की समानता से जो 'वही यह सामायिक है' इस प्रकार चित्र अथवा पुस्तक श्रादि में स्थापना की जाती है उसका नाम स्थापनासामायिक ११६२, जंन - लक्षणावली । २ कुछ स्थापनाएं व्यवस्थित समुचित प्रमाण से संयुक्त समस्त अवयवों से परिपूर्ण एवं सद्भावरूप होकर सबको अभिनन्दन करने वाली तथा इसके विपरीत योग्य प्रमाणादि से रहित होने के कारण कुछ मनको खेदजनक भी होती हैं। उनके विषय में रागद्वेष नहीं करना, इसे स्थापनासामायिक कहते हैं । स्थापना सिद्ध - पूर्व भावप्रज्ञापननयापेक्षया चरमशरीरानुप्रविष्टो य प्रात्मा क्षीरानुप्रविष्टोदकमिव संस्थानवत्तामुपगतः, शरीरापायेऽपि तमात्मानं चरम शरीरात् किञ्चिन्न्यूनात्मप्रदेशसमवस्थानं बुद्धावारोप्य तदेवेदमिति स्थापिता मूर्तिः स्थापनासिद्ध (भ. प्रा. विजयो. १ ) । पूर्वभावप्रज्ञापन नय को अपेक्षा जो श्रात्मा दूध में प्रविष्ट पानी के समान अन्तिम शरीर में प्रविष्ट होकर उसके प्राकार को प्राप्त हुआ है शरीर के विनष्ट हो जाने पर भी उक्त प्रतिम शरीर से किचित् हीन प्रात्मप्रदेशों में प्रवस्थित उस श्रात्मा को बुद्धि में श्रारोपित करके 'वही यह है' इस प्रकार से जो मूर्ति की स्थापना की जाती है, उसे स्थापनासिद्ध कहते हैं । स्थापनास्तव - १. चतुर्विंशतितीर्थकराणामपरिमितानां कृत्रिमा कृत्रिमस्थापनानां स्तवनं चतुर्विंशति स्थापनास्तवः | X XX अथवा XX X चतुविशतितीर्थंकराणां साकृत्यनाकृतिवस्तुनि गुणानारोप्य स्तवनं स्थापनास्तव: । (मूला. वृ. ७-४१ ) । २. कृत्रिमा कृत्रिमवर्णप्रमाणायतनादिभिः । व्यवर्ण्यते जिनेन्द्रार्चा यदसो स्थापनास्तवः ॥ ( श्रन. ध. ८-४०)। १ चौबीस तीर्थंकरों की कृत्रिम प्रकृत्रिम अपरिमित प्रतिमानों की जो स्तुति की जाती है उसे स्थापना Jain Education International [ स्थापित स्तव कहते हैं। तदाकार अथवा श्रतदाकार वस्तु में जो चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का प्रारोप करके उनकी स्तुति की जाती है उसे भी स्थापनास्तव कहा जाता है ।। स्थापनास्थापन - देखो स्थापनस्थापन | स्थापनास्पर्श - देखो स्थापनाकर्म और स्थापनाकृति । १. जो सो ठवणफासो नाम सो कटुकम्मेसु वा चित्तम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेपकम्मेसु वा लेष्णकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा प्रक्खो वा वराडो वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जदि फासे त्ति सो सव्वो ठवणफासो णाम । ( षट्ख. ५, ३, १० - धव. पु. १३, पृ. ८. 8 ) । २. सोयमिदि बुद्धीए अण्णदव्वेण अण्णदव्वस्स एयत्तकरणं ठवणफोसणं णाम । ( धव. पु. ४, पृ. १४२ ) । १ काष्ठकर्म व चित्रकर्म प्रादि में जो 'स्पर्श है' इस प्रकार से स्थापना के द्वारा जो अध्यारोप किया जाता है उस सबका नाम स्थापनास्पर्श है । स्थापनीमुद्रा - देखो श्रावाहनीमुद्रा । इयमेव ( श्रावाहन्येव ) श्रघोमुखी स्थापनी । (निर्वाणक. पृ. ३२ ) । श्रधोमुख वाली श्रावाहनीमुद्रा को ही स्थापनी मुद्रा कहा जाता है । स्थापनोद्देश - यत्तु सामान्येन देवताया इयं स्थापनेत्यभिधानं स स्थापनोद्देशः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १४० ) । यह सामान्य से देवता की स्थापना है, इस प्रकार जो कथन किया जाता है उसे स्थापना उद्देश कहते हैं । स्थापित -- देखो स्थापना उद्गम दोष । १. पागादु भायणा अण्णम्हि य भायण पक्खविय । सघरे व परघरे वा णिहिदं ठविदं वियाणाहि ॥ ( मूला. ६-११) । २. स्वार्थमेव कृतं संयतार्थमिति स्थापितम् (भ. प्रा. विजयो. व मूला. २३० ) । ३. स्वगृहेऽन्यगृहे वा यत् स्थापितं पाकभाजनात् । अन्यस्मिन् भाजनेऽन्नादि निक्षिप्य स्थापितं मतम् ॥ ( श्राचा. सा. ८- २६) । ४. स्थापितं यत्संयतार्थं स्वस्थाने परस्थाने वा स्थापितम् । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ४-१६५) ५. पाकभाजनाद् गृहीत्वा यदन्नं स्वगृहेऽन्यगृहे वा स्थापितम् । ( भावप्रा. टी. ६९ ) । १ पाक के लिए प्रयुक्त पात्र से देय श्राहार को निकालकर और अन्यपात्र में रखकर अपने ही घर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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