Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 502
________________ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ] हुए क्रम से चार समयों में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण समुद्घातों को करके फिर उतने ही चार समयों में ही फैले हुए श्रात्मप्रदेशों को क्रम से संकुचित करते हैं। इस प्रकार से उक्त चारों श्रघातिया कर्मों की जब स्थिति समान हो जाती है तब वे पूर्व शरीर के प्रमाण होकर सूक्ष्म काययोग के द्वारा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपात नामक तृतीय शुक्लध्यान को ध्याते हैं । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती - देखो सूक्ष्म क्रियानिवर्त्तक । सूक्ष्म क्रियाबन्धन - देखो सूक्ष्मक्रियानिवर्तक । सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम -- तथा स एव पल्यः उत्सेधागुलप्रमितयोजन प्रमाणायाम - विष्कम्भावगाहः पूर्ववदेकैकं बालाग्रमसंख्येयखण्डं कृत्वा तैराकीर्ण भृतो निचितश्च तथा क्रियते यथा मनागपि बह्व्यादिकं न तत्राक्रमति एवं भूते च तस्मिन् पल्ये ये ग्राकाशप्रदेशास्तवालाग्रेयें व्याप्ता ये च न व्याप्तास्ते सर्वscrifस्मन् समपे एकैकाशप्रदेशापहारेण समुद्धियमाणा यावता कालेन सर्वात्मना निष्ठामुपयान्ति तावान् कालविशेषः सूक्ष्मं क्षेत्रपल्योपमम् । ( बृहत्सं. मलय. बृ. ४) । उत्सेधांगुल प्रमित एक योजन प्रमाण लम्बे-चौड़े उस व्यवहार पल्य के एक एक बालाग्र के प्रसंख्यात खण्ड करके उनसे उसे ठसाठस इस प्रकार से भरे कि उसका श्रग्नि श्रादि प्रतिक्रमण न कर सकें । इस प्रकार से भरने पर उसमें से एक एक समय में एक एक बाला के निकालने पर जितने समय में वह पल्य रिक्त होता है उतने कालविशेष को सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम कहते हैं । सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम - एवंभूतानां च सूक्ष्मक्षेत्रपत्योपमानां दश कोटीकोटय एकं सूक्ष्मक्षेत्र सागरोपमम् । (बृहत्सं. मलय. वृ. ४) । दस कोडाकोडि क्षेत्रपल्योपमों का एक सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम होता है. 1 सूक्ष्म जीव- सूक्ष्मकर्मोदयवन्तः सूक्ष्मा: । ( धव. पु. १, पृ. २५० ) ; सूक्ष्मनामकर्मोदयोपजनितविशेषाः सूक्ष्मा: । ( धव. पु. १, पृ. २६७ ) ; अण्णेहि पोग्गलेहि पsिहम्ममाणसरीरो जीवो सुहुमो। (घव. पु. ३, पृ. ३३१ ) । सूक्ष्म नामकर्म के उदय से ल. १४७ Jain Education International ११६६, जैन-लक्षणावली युक्त [सूक्ष्मदोष जीव कहा जाता है। जिन जीवों का शरीर दूसरे पुद्गलों के द्वारा रोका नहीं जा सकता है वे सूक्ष्म जीव कहलाते हैं । सूक्ष्मत्व-अतीन्द्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मत्वम् । (परमा. वृ. १-६१ ) । इन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय न होना, इसका नाम सूक्ष्मत्व है | यह सिद्धों के प्राठ गुणों में से एक है जो नामकर्म के क्षय से प्रादुर्भूत होता है । सूक्ष्मदोष- - १. महादुश्चरप्रायश्चित्तभयान्महादोषसंवरणं कृत्वा तनुप्रमादाचारनिबोधनं पचमः । (त. वा. ६, २२, २ ) । २. महादुश्चरप्रायश्चित्तभयाद्वाsहो ( ? ) सूक्ष्मदोषपरिहारकोऽयमिति स्वगुणाख्यापनचिकीर्षया वा महादोषसंवरणं कृत्वा तनुप्रमादाचारनिवेदनं पंचमः सूक्ष्मदोषः । ( चा. सा. पृ. ६१ ) । ३. सूक्ष्मं च सार्द्रहस्तपरामर्शादिकं सूक्ष्मदोषं प्रतिपादयति महाव्रतादिभंगं स्थूलं तु नाचष्टे यस्तस्य पञ्चमं सूक्ष्मं नामालोचनादोषजातं भवेत् । ( मूला. वृ. ११ - १५ ) । ४. सूक्ष्मागः कीर्त्तनं सूक्ष्मदोषस्यापि विशोधकः । इति ख्यात्यादिहेतोः स्यात् सूक्ष्मं स्थूलोपगूहनम् । (प्राचा. सा. ६-३२ ) । ५. सूक्ष्मं वा दोषजातमालोचयति, न बादरम्, यः किल सूक्ष्ममालोचयति स कथं बादरं नालोचयिष्णतीत्येव रूपभावसम्पादनार्थमाचार्यस्येत्येष (सूक्ष्मः) प्रालोचनादोषः । ( व्यव. भा. मलय. वू. ३४२, पृ. १९) । ६. XXX सूक्ष्मं सूक्ष्मस्य केवलम् ॥ ( अन. घ. ७-४१ ) : सूक्ष्माख्य श्रालोचनादोषः स्यात् X X X गुरोरग्रे X XX सूक्ष्मस्यैव दूषणस्य प्रकाशनम्, स्थूलस्य प्रच्छादनमित्यर्थ: । ( अन. ध. स्वो टी. ७-४१ ) । ७. सूक्ष्मं अल्पं पापं प्रकाशयति, स्थूलं पापं न प्रकाशयतीति सूक्ष्मदोष: । ( भावप्रा. टी. ११८ ) । पञ्चमः जीवों को सूक्ष्म १ कठोर प्रायश्चित्त के भय से भारी दोष को छिपाकर क्षुद्र प्रमादाचरण के निवेदन करने पर श्रालोचना का पांचवां (सूक्ष्म) दोष होता है ५ सूक्ष्म दोषों की आलोचना करता है, पर 'जो सूक्ष्म दोष की प्रालोचना करता है, वह भला स्थूल दोष की आलोचना कैसे नहीं करेगा - श्रवश्य करेगा श्राचार्य के प्रति इस प्रकार के अभिप्राय के सम्पादन करने के लिए स्थूल दोष की जो प्रालोचना नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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