Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 512
________________ स्तव) ११७६, जैन-लक्षणावली [स्तेनप्रयोग जाता है, इसे स्तव-चतुर्विंशतिस्तव---जानना स्तुति---देखिये स्तव । १. गुणस्तोकं सदुल्लंघ्य चाहिए । २, ८ एक, दो ब तीन श्लोक रूप स्तुति के तद्बहुत्वकथा स्तुतिः । (स्वयम्भू. ८६) । २. याथा. प्रागे चौथे अथवा मतान्तर के अनुसार आठवें त्म्यमुल्लंघ्य गुणोदयाख्या लोके स्तुति: xxx। श्लोक को प्रादि लेकर स्तव जानना चाहिए, जैसे (युक्त्यनु. २)। ३. एग-दुग-तिसलोका कतीसु अन्नेसि देवेन्द्रस्तव आदि । ३ भूत, भविष्यत और वर्तमान होइ जा सत्त । (व्यव. भा. ७-१८३)। ४. बारकाल विषयक पांच परमेष्ठियों में भेद न करके संगेसु एक्कं गोवसंधारो थुदी णाम। xxx द्रव्याथिक नय के अनुसार जो 'अरहन्तों को नम- तत्थेगणियोगद्दारुवजोगो थुदी णाम । (धव. पु. ६, स्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो', इत्यादि रूप से पृ. २६३); एयंगविस प्रो एयपुव्वविसो वा उवनमस्कार किया जाता है इसका नाम स्तव है। जोगो थुदी णाम। (धव. पु. १४, पृ. ६)। ५. ६ जिस शास्त्र में सपूर्ण अंग का संक्षेप अथवा स्तुति: पुण्यगुणोत्कीतिः Xxx। (म. पु २५, विस्तार से वर्णन किया जाता है उसे स्तव कहते हैं। ११) । ६ स्तुतिः स्तुत्यानां सद्भतगुणोत्कीर्तनम् । स्तिबुक संक्रम--१. xxx थिबुप्रो अणुइन्नाए (त. भा. सिद्ध वृ. ७-६)। ७. एकश्लोका द्विउ जं उदये ।। (कर्मप्र. सं. क. ७१) । २. उदय- श्लोका विश्लोका वा स्तुतिभवति । xxx सरूवेण समट्टिदीए जो संक्रमो सो स्थिवुक्कसंकमो अन्येषामाचार्याणां मन एकश्लोकादिसप्तश्लोकति भण्णदे । (जयध..--- कसायपा. पृ. ७०० हि.)। पर्यन्ता स्तुतिः । (व्यव. भा. मलय. बृ.७-१८३)। ३. पिंडपगईण जा उदयसंगया तीए अणुदयगयायो। १ थोड़े से गुणों का अतिक्रमण करके जो बहुत से संकागिऊण वेयइ जं एसो थियुगसंकामो ।। (पंचसं. गुणों का निरूपण किया जाता है उसे स्तुति कहते सं. क. ८०) । ४. थियुगसंकमो वुच्चति-अणुदिणाणं हैं । ३, ७ एक, दो और तीन श्लोक तक स्तुति कहकमाणं दलितं उदयवति कम्मे पाडिवज्जति । जहा लाती है । ४ बारह अंगों में एक अंग के उपसंहार मणसस्स, मणुयगतीए वेतिज्जमाणीए णरगगति- को स्तुति कहा जाता है। एक अंगविषयक अथवा तिरियगति-देवगतिकम्मदलितं अणदिण्णं मणुज- एक पूर्वविषयक उपयोग का नाम स्तुति है। गतिए समं वेदिज्जति । (कर्मप्र. च. सं. क. ७१)। स्तेनप्रयोग-देखो चौरप्रयोग। १. मष्णन्तं स्वर ५. अनुदीर्णाया अनुदयप्राप्तायाः सत्कं यत्कर्मदलिक मेव वा प्रयुङ्क्तेऽन्येन वा प्रयोजयति प्रयुक्तमनुसजातीय प्रकृतावदयप्राप्तायां समानकालस्थितौ संक्र. मन्यते वा यतः स स्तेनप्रयोगः । (स. सि. ७-२७)। गानि मंकाय चानभवति यथा मनजगतावदय- २. मोषकस्य विधा प्रयोजनं स्तेनप्रयोगः। मष्णन्तं प्राप्तायां शेषं गतित्रयम, एकेन्द्रियजाती जातिचतू- स्वयमेव वा प्रयुक्ते अन्येन वा प्रयोजयति, प्रयुक्तष्टयमित्यादि, स स्तिबुकसंक्रमः । (कर्मप्र. मलय. मनुमन्यते वा यतः (चा. सा, 'यः') स स्तेनप्रयोगो व. ७१)। वेदितव्यः । (त. वा. ७, २७, १७ चा सा. पू. ६)। १ ग्रनदीर्ण प्रकृति के दलिक का जो उदयप्राप्त ३. स्तेना: चौरा:, तान् प्रयुक्ते 'हरत यूयम्' इति हरप्रकृति में विलय होता है उसे स्तिबु कसंक्रम कहते णक्रियायां प्रेरण मनुज्ञानं वा प्रयोगः, अथवा परस्वाहैं। २ विवक्षित प्रकृति का समान स्थिति वाली दानोपकरणानि कर्तरी घर्धरकादीनि । (त. भा. अन्य प्रकृति में जो संक्रमण होता है उसका नाम सिद्ध. वृ. ७-२२)। ४. कश्चित् पुमान चौरी स्तिबुकसंक्रम है। ३ गति, जाति प्रादि पिण्ड- करोति, अन्यस्तु कश्चित्तं चोरयन्तं स्वयं प्रेरयति प्रकृतियों में जो अन्यतम प्रकृति उदय को प्राप्त मनसा वाचा कायेन, अन्येन वा केनचित्पंसा तं है उस समान कालस्थिति वाली अन्यतम प्रकृति में चोरयन्तं प्रेरयति मनसा वाचा कायेन, स्वयमन्येन अनदयप्राप्त अन्य प्रकृतियों को संक्रान्त कराकर जो वा प्रेर्यमाणं चौरी कुर्वन्तं अनुमन्यते मनसा वाचा वेदन किया जाता है उसे स्तिबुकसंक्रम कहा जाता कायेन, एवंविधाः सर्वेऽपि प्रकारा: स्तेनप्रयोगहै। जैसे - उदयप्राप्त मनुष्यगति में शेष तीन शब्देन लभ्यन्ते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२७) । ५. नरकगति आदि का व एकेन्द्रिय जाति में शेष चार परस्य प्रेरणं लोभात स्तेयं प्रति मनीषिणा । स्तेनजातियों का इत्यादि। प्रयोग इत्युक्त: स्तेयातीचारसंज्ञकः ॥ (लाटीसं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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