Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 508
________________ सूत्रसंश्रय] ११७५, जैन-लक्षणावली [सृपाटिकानाम श्रुतनाम और प्रतिक्रमण प्रादि के विषय में पूछ कर पद्धती सा सूर्यप्रज्ञप्तिः । (नन्दी. हरि. वृ. पृ. ६१) । तीन दिन तक उसके शयन, प्रासन और गमनादि २. सूरपण्णत्ती पंचलक्ख तिण्णिसहस्से हि ५०३००० विषयक प्राचरण को देखकर गुरु उसकी चारित्र- सररसायु-भोगोवभोग-परिवारिद्धि-गइ बिबुस्सेह-दिशद्धि का निश्चय करके प्राचार्य को सम्मति से णकिरणुज्जोववण्णणं कुणइ । (धव पु. १, पृ. श्रुत का व्याख्यान करे तथा नवागत शिष्य, साधु ११०); सूर्यप्रज्ञप्तौ त्रिसहस्राधिकपंचशतसहस्रपदागुरु के द्वारा व्याख्यात श्रुत को विनयपूर्वक पढ़े। यां सूर्यबिम्बमार्ग-परिवारायुःप्रमाणं तत्प्रभावृद्धिइस प्रकार के पठन का नाम सूत्रसंश्रय है। ह्रासकारणं सूर्यदिन-भास-वर्ष-युगायन विधानं राहुसूनत ---१. सुष्ठु ऊन्यतेऽप्रियमात्राश्रयणं मिती- सूर्यबिम्बप्रच्छाद्य-प्रच्छ दकविधानं तद्गतिविशेषक्रियते इति सून्, सून् च तद् ऋतं च सनृतं प्रिय ग्रहच्छाया-काल सश्युदयविधानं च निरूप्यते । (धव. सत्यं च । तच्च पारुष्य-पैशून्यासभ्यत्व-चापलाविल- पु. ६, पृ. २०६) । ३ सूराउ-मंडल-परिवात्व-विरलत्व-संभ्रातत्व-संदिग्धत्व-ग्राम्यत्व - रागद्वेष- रिडिढ-पमाण-गमणायणुप्पत्तिकारणादीणि सरसंबं. यूक्तत्वोपधावद्य-विकत्थनपरिहारेण माधुयौ दार्य- धाणि सरपण्णत्ती वण्ण दि। (जयघ.१, प.१३२)। स्फुटत्वाभिजात्यपदार्थाभिव्याहाराऽर्हद्वचनानुसारार्थ- ४. त्रिसहस्र पचलक्षपदपरिमाणा सूर्यविभवादिप्रतित्वार्थिजनभावग्राहकत्वदेश-कालोपपन्नत्वयतमितहित. पादिका सूर्य प्रज्ञप्तिः। (सं. श्रुतभ. टी. ६, पृ. त्वयुक्तं वाचन-प्रच्छन-प्रश्न-व्याकरणादिरूपमिति १७४)। ५. सूर्यप्रज्ञप्तिः सूर्यस्यायुमण्डल-परिवारमृषावादपरिहाररूपं सूनृतम् । (योगशा. स्वो. विव. ऋद्धि-गमनप्रमाणग्रहणादीनि वर्णयति । (गो. जो. ४-६३)। २. प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सनतव्रतमच्यते। म.प्र. व जी. प्र. ३६२)। ६. सायुर्गति-विभवतत्तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत् ।। (त्रि. निरूपिका त्रिसहस्राधिकपंचलक्षपदप्रमाणा सूर्यश. पु. च. १, :, ६२३) । ३. सत्यं प्रियं हितं प्रज्ञप्ति: । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। ७. सहस्सचाहः सनतं सनतव्रताः। (अन. घ. ४-४२)। तियं पणलक्खा पयाणि पण्णत्तियाकक्किास्स ॥ ऊन्यते मितीक्रियते इति सन्' इस निरुक्ति सरस्सायुविमाणे परिया रिद्धी य अयणपरिमाणं । के अनुसार सून' का अर्थ परिमित होता है, सन् तत्ताब-तमे [मग्ग] गहणं वण्णेदि वि सूर ऐसा जो ऋत अर्थात् प्रिय व सत्य वचन है उसे, (अंगप. २, ३-४, पृ. २७४)। सनत कहा जाता है। कठोरता, पिशुनता, असभ्यता १ जिस ग्रन्थ प्रकरण में सूर्य के वृत्तान्त का ज्ञापन चंचलता, प्राविलता (मलिनता), विरलता, भ्रान्ति, कराया जाता है उसे सूर्यप्रज्ञप्ति कहा जाता है। सन्दिग्धता, ग्रामीणता, राग-द्वेषयुक्तता और उपधि २ सूर्यप्रज्ञप्ति पाँच लाख तीन हजार (५०३०००) (कपट), अवध व निन्दा को छोड़कर जो मधुरता, पदों के द्वारा सूर्य को प्रायु, भोग-उपभोग, परिवार, उदारता, स्पष्टता और कुलीनता आदि का व्यव- ऋद्धि, गति, विम्ब की ऊंचाई, दिन, किरण, और हार करते हुए जिन वचन के अनुसार वचन बोला उद्योत की प्ररूपणा करती है। जाता है उसे सनत वचन कहते हैं । सर्यमास---१. सूर्य मासस्त्वयमवगन्तव्य:-त्रिशद् सरि-- देखो प्राचार्य ! १. प्रव्रज्यादायकः सूरिः दिनान्यधं च (३०३)। (त. भा. सिद्ध. व. ४, संयतानां निगोयते । (योगसा. प्रा. ८-६)। १५)। २. सार्द्धत्रिंशताऽहोगरेक: सूर्यमासः । २. छत्तीसगुणसमग्गो णिच्च प्रापरइ पच पायारो। (सूर्यप्र. मलय. वृ. १२-७५, पृ. २१६) । सिस्साणुगहकुसलो भणियो सो सूरि परमेट्ठी ।। १ साढ़े तीस (३०३) दिनों का एक सूर्यमास (भाव. दे. ३७७)। होता है। १ संयंतों को जो दीक्षा दिया करता है उसे सरि सृपाटिकानाम-सृपाटिकानाम कोटिद्वयसंगते कहा जाता है। २ जो छत्तीस गुणों में परिपूर्ण यत्रास्थिनी (सिद्ध. 'ये अस्थिनी', चर्म-स्नायुहोकर पाँच प्राचारों का पालन करता हुमा शिष्यों मांसावनद्धे ('सिद्ध बद्ध') तत्सृपाटिकानाम कीर्त्यते । के अनुग्रह में दक्ष होता है उसे सूरि कहते हैं। (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ८-१२)। सर्यप्रज्ञप्ति-१. सूर्य चरितप्रज्ञापनं यस्यां ग्रन्थ- दोनों प्रोर संगत जिस संहनन में दोनों ओर की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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