Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 499
________________ सुषमा] ११६६, जैन-लक्षणावली [सूक्ष्म (पुद्गल) (भगवती ६, ७, ५)। ६, पृ. ६५); जस्स कम्मस्सुदएण कण्णसु हो सरो १ सुषमा काल के प्रारम्भ में मनुष्यों के शरीर की होदि तं सुस्सरणामं । (धव. पु. १३, पृ. ३३६) । ऊंचाई चार हजार धनुष, प्रायु दो पल्य प्रमाण तथा ७. येन शब्देनोच्चरितेनाकणितेन च भूयसी प्रीतिशरीर की कान्ति पूर्ण चन्द्र के समान होती है। रुत्पद्यते तत् सुस्वरनाम । (त. भा. सिद्ध. वृ. ८, की पीठ की हड़ियां एक सौ अट्राईस होती हैं। १२)। ८. सुसरकम्मदएणं सुसरस हो य होइ इह स्त्रियां अप्सरानों जैसी सुन्दर और पुरुष देवों के जीवो। (कर्मवि. ग. १४५)। ६. यस्योदयात्सु. समान होते हैं। इस काल में मनुष्य षष्ठ भक्त में-- स्वरत्वं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं भवति तत्सस्वरनाम । दो दिन के अन्तर से -- अक्षफल (बहेड़ा) के बरा- (मूला. वृ. १२-१६६) । १०. यदुदयवशाज्जीवस्य बर पाहार को ग्रहण करते हैं। शरीर का प्राकार ___ स्वरः श्रोतृणां प्रीतिहेतुरुपजायते तत्सुस्वरनाम । उनका समचतुरस्रसंस्थान जैसा होता है । इस काल (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३. पृ. ४७४) । ११. मनोका प्रमाण तीन कोडाकोडी सागरोपम है। ज्ञस्वरनिवर्तकं सुस्वरनाम । (भ. प्रा. मला. सुषिर-देखो सोषिर । १. सुसिरो णाम वस- २१२४) । १२. यस्मान्निमित्तात् मनोज्ञस्वरनिर्वसंख-काहलादिजणिदो (सद्दो)। (धव. पु. १३, पृ. र्तनं भवति तत्सुस्वरनाम । (गो. क. जी. प्र. ३३)। २२१)। २. सुषिरः शब्दः कम्बु-बेणु-भंभा-काहला- १३. यदुदयेन चित्तानुरंजकस्वर उत्पद्यते तत्सुस्वरदिप्रभवः सुषिर उच्यते । (त. वत्ति श्रुत.५-२४)। नाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) । १ बांसुरी, शंख और काहल प्रादि से उत्पन्न शब्द १ जिस कर्म के निमित्त से मनोहर स्वर की रचना को सुषिर कहा जाता है । होती है उसे सस्वर नामकर्म कहते हैं। ४ जिसके सुसाधु--नाण-दसणसपन्नसंजमभावेसु जो रतो सो उदय से स्वर के सुनने पर बहुतों को प्रोति उत्पन्न सुसाधु । (दशव. चू. पृ. २६१)। होती है उसका नाम सुस्वर नामकर्म है। जो ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न होता हुआ संयम. सुहृदनुराग-देखो मित्रानुराग। सुहृदनुरागो भावों में रत रहता है वह सुसाधु कहलाता है। बाल्ये सहपांशुक्रीडनादि व्यसने सहायत्वमुत्सवे सस्थित-सुस्थित प्राचार्यः, परोपकारकरणे स्व- सम्भ्रम इत्येवमादेश्च मित्रसुकृतस्यानुस्मरणम्, प्रयोजने च सम्यक स्थितत्वात् । (मन. घ. स्वो. टी. बाल्याद्यवस्थासहफ्रीडितमित्रानुस्मरणं वा। (सा. ७-६८)। . घ. स्वो. टी. ८-४५)। सुस्थित प्राचार्य उसे कहते हैं, जो परोपकार बाल्यावस्था में मित्रों के साथ जो धूलि प्रादि में के करने में और अपने प्रयोजन में भली भांति क्रीडा की है, व्यसन में सहायता की है, तथा स्थित रहता है। यह भक्तप्रत्याख्यान को स्वीकार उत्सव में साथ-साथ घमना-फिरना हमा है; इत्यादि करने वाले क्षपक के ग्रादि ४० लिगों में से एक मित्रों के द्वारा किये गये कार्यों का स्मरण करना अथवा बाल्यावस्था में साथ-साथ खेलने वाले सुस्वरनाम-१. यन्निमित्तं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं मित्रों का स्मरण करना, इसे सुहृदनुराग कहा सत्सुस्वरनाम। (स. सि. ८-११; त. श्लो. ८, जाता है । यह सल्लेखना का एक अतिचार है। ११) । २. सोस्वर्यनिर्वर्तकं सुस्वरनाम । (त. भा. सूक्ष्म (पुद्गल)-देखो सोक्षम्य । १. पञ्चानां ८-१२)। ३. यन्निमित्तं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तत् वैक्रियादीनां शरीराणां यथाक्रमम् । मनसश्चापि सस्वरनाम । मनोज्ञस्वरनिर्वतनं यन्निमित्तमुपजायते वाचश्च वर्गणाः याः प्रकीर्तिताः ।। तासामन्तरवतिप्राणिनस्तत् सुस्वरनाम । (त. वा. ८, ११, २५)। न्यो वर्गणा या व्यवस्थिताः। ताः सूक्ष्मा इति ४. येन स्वरितेनाणितेन च भूयसां प्रीतिरुत्पद्यते विज्ञया अनन्तानन्तसंहताः ॥ (वरांगच. २६-२०, तत सस्वरनाम । (त. भा. हरि. व. ८-१२)। २१)। २. सूक्ष्मत्वेऽपि हि करणानुपलभ्याः कर्मवर्ग५. सुस्वरनाम यदुदयात्सोस्वयं भवति श्रोतुः प्रीति- णादयः सूक्ष्माः। (पंचा. का. प्रमत. व. ७६) । हेतुः। (श्रा. प्र. टी. २३)। ६. जस्सोदएण जीवाणं ३. सूक्ष्मास्ते कर्मणां स्कन्धा: प्रदेशानन्त्ययोगतः । महरसरो होदि तं कम्म सुस्सरं णाम । (धव. पु. (म. पु. २४-१५०)। ४. ये तु ज्ञानावरणादिकर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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