Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 498
________________ सुर] ११६५, जन-लक्षणावली [सुषमा उत्पन्न हुई वे (पांचवें तीर्थकर) नाम से सुमति होदि ।। तक्काले ते मणुप्रा प्रामलकपमाणमाहारं । कहलाए। भुति दिणंतरिया समचउरस्संग-संठाणा ॥ (ति. सुर--अहिंसाद्यनुष्ठानरतयः सुरा नाम । (धव. पु. प. ४, ४०३-६) । २. दो सागरोवमकोडाकोडीश्री १३, पृ. ३६१)। कालो सुसमदुममा । (भगवती ६, ७, ५)। जो अहिंसा प्रादि के अनुष्ठान में अनुराग रखते हैं वे १ सुषम-दुषमा काल के प्रारम्भ में मनुष्यों के सुर कहलाते हैं। शरीर की ऊचाई दो हजार धनुष, प्रायु एक सरभिगन्धनाम--१. जस्स कम्मस्स उदएण सरी- पल्योपम प्रमाण तथा वर्ण पियंग फल के समान | सुअंधा होति तं सुरहिगंध णाम । (धव. होता है। उनकी पीठ की हड्डियां चौंसठ होती हैं। पु. ६, पृ ७५) । २. यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन उस समय में स्त्री अप्सरा के समान और पुरुष शरीरपुद्गलाः सुरभिगन्धयुक्ता भवन्ति तत्सरभि- देव के समान होता है। इस काल में वे मनुष्य गन्धनाम । (मूला. वृ. १२-१९४) । ३. यदुदया- आँवल के बराबर भोजन एक दिन के अन्तर से ज्जन्तुशरीरेषु सुरभिगन्ध उपजायते तत्सुरभिगन्ध- करते हैं, श्राकार उनका समचतुरस्रसंस्थान जैसा नाम । (प्रज्ञाप. मलय. व. २६३, पृ. ४७३)। होता है। इस काल का प्रमाण दो कोडाकोडी १ जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल उत्तम सागरोपम है। गन्ध से युक्त होते हैं उसे सुरभिगन्ध नामकर्म कहा सुषम-सुषमा-१. xxx तेसु पढमम्मि । जाता है। चत्तारिसायरोवमकोडाकोडीग्रो परिमाणं ।। (ति. सुरेन्द्रताक्रिया-या सुरेन्द्रपदप्राप्तिः पारिब्रज्य- प. ४-३१७); सुसम-सुसमम्मि काले भूमी रजफलोदयात् । सैषा सुरेन्द्रता नाम क्रिया प्रागनु- धूम-जलण-हिमरहिदा। कंटय-अब्भसिलाई-विच्छीवणिता ।। (म. पु. ३६-२०२) । पादिकीडोवसग्गपरिचत्ता । णिम्मलदप्पणसरिसा पारिवज्य के फलस्वरूप जो इन्द्रपद की प्राप्ति णिदिददव्वे हि विरहिदा तीए । सिकदा हवेदि दिव्वा होती है, यह सुरेन्द्रताक्रिया कहलाती है। तणु-मण-णयणाण सहजणणी ॥ (ति. प. ४, सुललित दोष-द्वात्रिंशो वन्दने गीत्या दोषः ३२०-२१) । २. एएणं सागरोवमपमाणेणं चत्तारि सुललिताह्वयः । (अन. घ. ८-१११)। सागरोवमकोडाकोडीप्रो कालो सुसम-सुसमा । गान के साथ-पंचम स्वर से-वन्दना करने पर (भगवती ६, ७,५)। सुललित नाम का दोष होता है। यह ३२ वन्दना- १ सुषम-सुषमा काल में पृथिवी धूलि, धुम्रा, दोषों में अन्तिम है। अग्नि, वर्फ, कांटे, प्रोले और वीछू प्रादि जन्तुओं सविधि-शोभनो विधिः सर्वत्र कौशलमस्येति के उपद्रव रहित होती हई दर्पण के समान निर्मल सविधिः, तथा गर्भस्थे भगवति जनन्यप्येवमिति होती है। उस समय पथिवी के ऊपर कोई भी सविधिः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४) । निन्दित द्रव्य नहीं पाये जाते । वहां की दिव्य बालु तीर्थकर पुष्पदन्त की विधि-सर्वत्र कुशलता-- शरीर, मन और नेत्रों को सुखप्रद होती है। इस सुन्दर या उत्कृष्ट थी, तथा गर्भ में स्थित रहने काल का प्रमाण चार कोडाकोडी सागरोपम है। पर माता की भी कुशलता इसी प्रकार की रही है, सषमा-१. सुसमम्मि तिणि जलहीउवमाणं होंति इसी से वे 'सविधि' इस सार्थक नाम से प्रसिद्ध हए। कोडकोडीयो। (ति. प. ४-३१८); सुसमस्सासुषम-दुषमा- १. दोण्णि तदियम्मि xxx ॥ दिम्मि णराणुच्छेहो चउसहस्सचावाणि। दोपल्ल(ति. प. ४-३१८); उच्छेहपहुदिखीणे पविसेदि हु पमाणाऊ संपुण्णमियंक सरिसपहा ॥ अट्ठावीसुत्तरसुसम-दुस्समो कालो। तस्स पमाणं सायरउवमाणं सयमट्ठी पुट्ठीय होंति एदाणं । अच्छरसरिसा इत्थी दोणि कोडीग्रो ।। तकालादिम्मि णराणुच्छेहो दो- सिदससरिच्छा णरा होंति ॥ तस्सि काले मणुवा सहस्सचावाणि । एक्क-पलिदोवमाऊ पियंगुसारिच्छ- अक्खप्फलसरिसममिदनाहारं । भुंजति छट्ठभत्ते समवण्णधरा ॥ चउसट्ठी पुट्ठोए णराण णारीण होंति चउरस्संगसंठाणा ॥ (ति. प. ४, ३६६-६८)। अट्री वि। अच्छरसरिसा णारी अमरसमाणो णरो २. तिण्णिसायरोवम-कोडाकोडोयो कालो ससमा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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