Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 496
________________ सीमविस्मृति) सिद्धि कहा जाता है । ३ जिसमें जीव निष्ठितार्थ ( कृतकृत्य ) होते हैं उसका नाम सिद्धि है। वह लोक के प्रभाग (सिद्धालय ) स्वरूप है । ५ स्थान व ऊर्ण आदि योगविशेषों में विवक्षित योगविशेष से युक्त योगी के समीपवर्ती दूसरों के भी हित की जो साधक होती है, इसे सिद्धि कहते हैं । सीम विस्मृति - देखो स्मृत्यन्तर्धान । सीमविस्मृतिः नियमित मर्यादाया अज्ञानतो मत्यपाटव- सन्देहादिना प्रमादाद्वाऽतिव्याकुलत्वान्यमनस्कत्वादिना स्मृतिभ्रंशः । तथा हि- केनचित् पूर्वस्यां दिशि योजनशतरूपं प्रमाणं कृतमासीत्, गमनकाले च स्पष्टतया न स्मरति किं शतं परिमाणं कृतमुत पञ्चाशत् तस्य चैव पञ्चाशतमतिक्रामतोऽतिचारः शतमतिक्रामतो भङ्गः, सापेक्षत्व-निरपेक्षत्वाच्चेति प्रथमोऽतिचारः । (सा. घ. स्वो टी. ५-५) । दिग्व्रत में जो मर्यादा की गई है, उसका प्रज्ञानता, बुद्धि की पटुता और सन्देह श्रादि के कारण ग्रथवा प्रमाद के वश प्रतिशय व्याकुल होने से, श्रथवा अन्यमनस्क होने श्रादि से स्मरण न रहना; इसे स्मृतिभ्रंश कहा जाता है । जैसे किसी ने पूर्वदिशा में सौ योजन का प्रमाण किया, पर जाने के समय वह यह स्मरण नहीं करता कि सौ योजन की मर्यादा की गई है या पचास योजन की । ऐसी स्थिति में यदि वह पचास योजन का प्रतिक्रमण करता है तो यह सीमविस्मृति नामक प्रतिचार होगा । पर यदि वह सौ योजन का प्रतिक्रमण करता है तो उसका वह व्रत ही भंग होगा । इसका कारण सापेक्षता और निरपेक्षता है । सुख - १. सुखमिन्द्रियार्थानुभव: । ( स. सि. ४, २०); सदसद्वेद्योदयेऽन्तरङ्गहेतो सति बाह्यद्रव्यादि परिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमानः प्रीति- परितापरूपः परिणामः सुख-दुःखमित्याख्यायते । ( स. सि. ५, २०) । २. सद्योदये सति इष्टविषयानुभवनं सुखम् । सद्योदयमूल हेतौ सति बाह्यस्येष्टविषयस्योपनिपाते तद्विषयमनुभवनं सुखमिति कथ्यते । (त. वा. ४, २०, ३); बाह्यप्रत्ययवशाद् सद्वेद्योदयादात्मनः प्रसादः सुखम्, यदात्मस्थं सद्वेद्यं कर्म द्रव्यादिबाह्यप्रत्ययवशात् परिपाकमुपयाति तदात्मनः प्रसादः प्रीतिरूपः सुखमित्याख्यायते । (त. वा. ५, २०. १) । ३. दुक्खुवसमो सुहं णाम । ( धव. पु. Jain Education International ११६३, जैन-लक्षणावली [सुखानुबन्ध (१३, पृ. २०८ ); इत्थसमागमो प्रणिट्ठत्थविप्रोगो च सुहं णाम । (घव. पु. १३, पृ. ३३४) : तस्स ( दुक्खस्स ) उवसमो तदणुपपत्ती वा दुक्खुवसम हे उदन्वादिसंपत्ती वा सुहंणाम । ( धव. पु. १५, पृ. ६ ) । ४. जीवस्य आह्लादन हेतुर्द्रव्यं सुखम्, यथा क्षुत्तृडार्त्तस्य मृष्टोदन - शीतोदके । ( जयघ. १, पृ. २७१) । ५. सद्योदये सतीष्टविषयानुभवनं सुखम् । ( त श्लो. ४ - २० ) । ६ XXX तत्सुखं यत्र नासुखम् । ( श्रात्मानु. ४६; उपासका २९१ ) । ७ सुखं प्रीतिः । ( नीतिवा. ६-१३ ) । ८. जं णोकसाय विग्धचउक्काण बलेण सादपहुदीणं । सुहपयडीणुदयभवं इंदियतोसं हवे सोक्खं ॥ ( ल. सा. ६१५) । ६. परमतृप्तिरूपमनाकुलत्वलक्षणं सुखम् । ( प्रव. सा. जय. वृ. १- ६८ ) । १० इन्द्रियविषयानुभवनं सुखम् । (त. वृत्ति श्रुत. ४ -२० ) । ११ तथा च हारीत: - मनसश्चेन्द्रियाणां च यत्रानन्दः प्रजायते । दृष्टे वा भक्षिते वापि तत् सुखं सम्प्रकीर्तितम् ॥ ( नीतिवा. टी. ६-१३ ) । १ इन्द्रियविषयों के अनुभव का नाम सुख है । सातावेदनीय के उदयरूप अन्तरंग हेतु के होने पर बाह्य द्रव्य आदि के परिपाक के निमित्तवश जो प्रीतिरूप परिणाम उत्पन्न होता है उसे सुख कहते हैं । ६ सुख उसे कहना चाहिए जिसमें दुःख का लेश न हो । सुख-दुःखोपसम्पत् - देखो सुखासुखसंश्रय | सुहदुक्खे उवयारो वसही प्राहार- भेसजादीहि । तुम्हं श्रहं ति वयणं सुह- दुक्खुवसंपया या ।। (मूला. ४.२२ ।। सुख या दुःख के समय मैं वसति श्राहार और प्रौषधि श्रादि के द्वारा उपकार करना तथा 'प्रापके लिए मैं हूं- मैं प्रापको सब प्रकार से सेवा करूंगा' इस प्रकार कहना, इसे सुख-दुःखोपसंपत् जानना चाहिए । सुखानुबन्ध १. अनुभूतप्रीतिविशेषस्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबन्ध: । ( स. सि. ७-३७ त श्लो. ७ - ३७ ) । २. अनुभूत प्रीतिविशेषस्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबन्धः । एवं मया भुक्तं शयितं क्रीडितमित्येवमादिप्रीतिविशेषं प्रति स्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबन्ध इत्यभिधीयते । (त. वा. ७, ३७, ५) । ३. प्रनुभूतप्रीतिविशेषस्मृतिसमाहरणं चेतसि सुखानुबन्धः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७ - ३२ ) । ४. एवं मया भुक्तं शयितं क्रीडितमित्येवमादिप्रीतिविशेषं प्रति स्मृति --- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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