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सुखासुखसश्रय] ११६४, जैन-लक्षणावली
[सुमति समन्वाहारः सुखानुवन्धः । (चा. सा. पृ. २४; सा. गर्भस्थे भगवति जनन्यपि सुपाङ जातेति सुपाघ. स्वो. टी. ८-४५)। ५. दोषः सुखानुबन्धाख्यः वः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४) । यथात्रास्मीह दुःखवान् । मृत्वापि व्रतमाहात्म्याद् पार्श्वभागों के सुन्दर होने तथा भगवान के गर्भ में भविष्येऽहं सुखी क्वचित् ।। (लाटीसं. ६-२४१)। स्थित होने पर माता के भी सुन्दर पार्श्वभागों से १ पूर्व में अनुभव में पाए हुए विषयों के अनुराग संयुक्त होने के कारण सातवें तीर्थंकर 'सुपाश्र्व' नाम का बार-बार स्मरण करना, इसका नाम सुखानु. से प्रसिद्ध हुए। बन्ध है।
सुभगनाम-१. यदुदयादन्यप्रीतिप्रभवस्तत्सुभगसुखासुखसंश्रय --देखो सुखदुःखोपसम्पत् । चौर. नाम । (स. सि. ८-११; त. इलो ८-११) । कर-गदोर्वीशपीडिताद्यतिवतिनाम् । तोषोत्कर्षण- २. सौभाग्यनिर्वर्तकं सभगं नाम। (त. भा. ८, माहार-भेषजायतनादिभिः ।। स्वात्मार्पणमहं तुभ्य. १२) । ३. यदुदयादन्यप्रीतिप्रभवस्तत् सुभगनाम । मस्मीति च सुखेऽसुखे । यत्तच्चित्तप्रसादार्थ तत्सुखा- यदुदयात् रूपवानरूपो वा अन्येषां प्रीति जनयति सुखसश्रयः ।। (प्राचा. सा. २, २२-२३)। तत् सुभगनाम । (त. वा. ८, ११, २३) । ४. चोर, दुष्ट, रोग और राजा प्रादि के द्वारा पीडित सुभगनाम यदुदयात्काम्यो भवति । (श्रा. प्र. टी. होकर दुःख का अनुभव करने वालों को प्राहार- २३)। ५. स्थी-पुरिसाणं सोहग्गणिवत्तयं सुभगं पोषष और स्थान प्रादि के द्वारा सन्तुष्ट करने णाम । (धव. पु. ६, पृ. ६५); जस्स कम्मस्सुदएण तथा यह कहने कि मैं आपके लिए अपने को सम- जीवस्स सोहग्गं होदि तं सुहगणामं । (धव. पु. १३, पित करता हूं; इसे सुखासुखसश्रय कहा जाता है। पृ. ३६३)। ६. यदुदयात् स्त्री पुंसयोरन्योन्यप्रीतिसुगत--१. केवलज्ञानशब्दवाच्यं गतं ज्ञानं यस्य स प्रभवं सौभाग्यं भवति तत्सुभगनाम । (मूला. वृ. सुगतः, अथवा शोभनमविनश्वरं मुक्तिपदं गतः १२-१९६)। ७. यदुदयवशादनुपकृदपि सर्वस्य सुगतः। (ब. द्रव्यसं. टी. १४, पृ. ४०-४१)। मनःप्रियो भवति तत्सभगनाम । (प्रज्ञाप. मलय. व. २. सर्वद्वन्द्व विनिर्मुक्तं स्थानमात्मस्वमावजम् । प्राप्तं २६३, पृ. ४७४) । ८. परप्रीतिप्रभवफलं सुभगाख्यं परमनिर्वाणं येनासौ सुगतः स्मृतः ।। (प्राप्तस्व. नाम । (भ. प्रा. मूला. २१२१) । ६. यदुदयादन्य
प्रीतिप्रभवः तत्सुभगनाम । (गो. क. जी. प्र. ३३)। १ जिसके केवलज्ञान शब्द के द्वारा कहा जाने वाला १०. यदुदयेन जीवः परप्रीतिजनको भवति दृष्टः गत (ज्ञान) विद्यमान है उसे सुगत कहा जाता है, श्रुतो वा तत्सुभगनाम । (त. वृत्ति श्रृत. ८-११)। अथवा जो सुन्दर व अविनश्वर मुक्ति पद को १ जिस कर्म के उदय से जीव दूसरों की प्रीति का प्राप्त कर चुका है उसे सुगत जानना चाहिए। कारण होता है उसे सुभग नामकर्म कहते हैं।
र-१. अधिकप्रतिरूपग्रीवोरस्काः श्या- २ जो कर्म सौभाग्य को उत्पन्न करता है वह सुभग मावदाता गरुड़चिह्नाः सुपर्णकुमाराः। (त. भा. नामकर्म कहलाता है। ७ जिसके उदय से अनुप४-११)। २. सुपर्णा नाम शुभपक्षाकारविकरण- कारी भी सबके मन को प्रिय होता है उसे सुभग प्रियाः। (धव. पु. १३, पृ. ३६१)। ३. सुष्ठु नामकर्म कहा जाता है। शोभनानि पर्णानि पक्षाः येषां ते सुपर्णाः, सुपर्णाश्च सुभिक्ष-सालि-ब्रीहि जव-गोधूमादिधण्णाणं सुलते कुमारा: सुपर्णकुमाराः। (त. वृत्ति श्रुत. ४.१०), हत्तं सुभिक्खं णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३३६)। १ जिनकी प्रीवा और वक्षस्थल अतिशय सुन्दर होते सालि, व्रीहि, जौ और गेहू प्रादि का सरलता . हैं, वर्ण से जो श्याम व निर्मल होते हैं, तथा चिह्न प्राप्त हो जाना, इसका नाम सुभिक्ष है। जिनका गरुड़ होता है; वे सुपर्णकुमार (भवनवासी सुमति-सु शोभना मतिरस्येति सुमतिः तथा देवविशेष) कहलाते हैं। २ जो उत्तम पार्श्वभागों के गर्भस्थ जनन्याः सुनिश्चिता मतिरभदिति समतिः । प्राकार में विक्रिया किया करते हैं उन्हें सुपर्णकुमार (योगशा. स्वो. विव. ३--२४) । कहा जाता है।
जो निर्मल बुद्धि के धारक थे तथा जिनके गर्भ में सुपार्श्व-शोभनाः पार्श्वः अस्येति सुपावः, तथा स्थित होने पर माता के प्रतिशय निश्चित मति
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