Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 495
________________ सिद्धत्व] ११६२, जैन-लक्षणावली [सिद्धि र्थः । (गो. जी. म. प्र. १५२); रोगादिविविध- १प्रात्मा का जो स्वाभाविक सुख शाश्वतिक, बाधा वेदनाश्च यस्यां न सन्ति सा कृत्स्नकर्मविप्रमोक्ष- से रहित और उपमा से रहित (अनुपम) है प्रादुर्भूतसिद्धत्वपर्यायलक्षणा सिद्धगतिः । (गो. जी. उसे सिद्धों का सुख कहा गया है। जी. प्र. १५२)। सिद्धावणंवाद-१. स्त्री-वस्त्र-गन्ध-माल्यालंका१ जीव की जिस अवस्था में जन्म, जरा, मरण, रादिविरहितानां सिद्धानां सूखं न किञ्चिदतीन्द्रिभय, सयोग, वियोग, दुःख एवं प्राहारादि संज्ञाय याणां तेषां समधिगती न निबन्धनमस्ति किञ्चिऔर रोग आदि सम्भव नहीं हैं उसे सिद्धगति कहा दिति सिद्धावर्णवादः । (भ. प्रा. विजयो. ४७)। जाता है। २ गति नामकर्म का प्रभाव होने पर जो २. सिद्धानां सुखं न किचिदस्ति, तत्कारणकामिभवान्तर का संक्रमण रुक जाता है, इसी का नाम न्यादीनामभावात् । सतोऽपि वा सुखस्य तेषां नानुसिद्धगति है। भवस्त निमित्तानामिन्द्रियाणामतीन्द्रियतया तत्राससिद्धत्व-१. दीहकालरयं जंतु कम्म सेसिन त्वादित्यादिः सिद्धानाम (अवर्णवादः)। (भ. प्रा. महा । सिग्रं धतंति सिद्धस्स सिद्धत्तमवजाय॥ मला. ४७) । (प्राव. नि. हरि. व. ९५३) । २. सिद्धत्वं कृत्स्न- १ स्त्री, वस्त्र, गन्धमाल्य और अलंकार प्रादि से कर्मभ्यः सोऽवस्थान्तरं पृथक् । ज्ञान-दर्शन-सम्यक्त्व- रहित सिद्धों के कुछ भी सुख नहीं है तथा इन्द्रियों वीर्याद्यष्टगुणात्मकम् ।। (पंचाध्या. २-११३६)। से रहित हुए उनके जानने का भी कोई कारण १ अनादि परम्परा की अपेक्षा जिसका स्थितिबन्ध- नहीं है, इस प्रकार के कथन को सिद्धों का प्रवर्णकाल दीर्घ रहा है उस पाठ प्रकार के बद्ध कर्म को वाद कहा जाता है। शेषित किया---प्रल्प किया, तत्पश्चात उसे दग्ध सिद्धि---१. सिद्धिः स्त्रात्मोपलब्धि: प्रगुणगुणकर देने पर मुक्ति को प्राप्त हुए सिद्ध जीव के गणोच्छादिदोषापहाराद् योग्योपादानयुक्त्या दृषद् सिद्धत्वभाव प्रगट होता है। २ समस्त कर्मों से इह यथा हेमभावोपलब्धिः । (सं. सिद्ध भ. १)। रहित होने पर जो जीव की ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व २. सिद्धिः प्रविप्रतिपत्तिः अव्युत्पत्ति-संशय-विपर्यासऔर वीर्य प्रादिगणों स्वरूप पथक अवस्था प्रादुर्भत लक्षणाज्ञाननिवत्तिः प्रमितिः । (सिद्धिवि. स्वो. वि. होती है उसका नाम सिद्धत्व है। १-२३, पृ. ६६) । ३. सिध्यन्ति निष्ठिता सिद्धवर्णजनन-१. अनन्तज्ञानात्मकेन सुखेन संतृप्ता भवन्त्यस्यां प्राणिन इति सिद्धिः लोकान्तक्षेत्रलक्षणा। सिद्धा इति तन्माहात्म्यकथनं सिद्धानां वर्णजननम्। ललितवि. प. ६५)। ४. सिद्धिस्तत्तद्धर्मस्थाना(भ. प्रा. विजयो. ४७)। २. परमतप्रसिद्धान वाप्तिरिह तात्त्विकी ज्ञेया। (षोडशक. ३-१०)। सिद्धानपोह्य जिनमतेन तत्स्वरूपनिरूपणं सिद्धानां ५. सव्वं परत्थसाहगरूवं पूण होइ सिद्धित्ति ।। वर्णजननम् । (भ. प्रा. मूला. ४७)। (योगवि. ६) । ६. सिद्धिः प्रश्शेषकर्मच्युतिलक्षणा । १ सिद्ध जीव अनन्त ज्ञानस्वरूप सुख से सन्तुष्ट होते (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ५, २५, पृ. १३०) । हैं, इस प्रकार से सिद्धों के माहात्म्य को प्रगट ७. सिध्यन्ति कृतार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः, करना, इसे सिद्धों का वर्णजनन कहते हैं । २ अन्य ईषत्प्रागभाराऽपि सिद्धिः व्यपदिश्यते अथवा कृतसम्प्रदायों में प्रसिद्ध सिद्धों का निराकरण करके कृत्यत्वं लोकाग्रयमणिमादिका वा सिद्धिः । (स्थाना जिनमत के अनुसार उनके स्वरूप के निरूपण को प्रभय. वृ. ४६) । ८. सिद्धिः अनन्तज्ञानादिस्वरूपोसिद्धों का वर्णजनन कहा जाता है। पलब्धिः । (गो. जी. म. प्र. ६८)। ६. सिद्धिः सिद्धसौख्य-१. ध्रुवं परमनाबाघमपमानविजि- स्वात्मोपलब्धिःXxx । (कातिके. टी. १६२) । तम् । अात्मस्वाभाविकं सौख्यं सिद्धानां परिकीति- १ उत्तमोत्तम गुणों के समूह को नष्ट करने वाले तम् ।। (पद्मपु. १०५-१८०) । २. ण वि अथि दोषों के दूर होने से जो पाषाण की सुवर्णरूपता के माणुसाणं पादसमुत्थं चिय विष [स]यातीदं। समान अपने प्रात्मस्वरूप की प्राप्ति होती है उसे अव्वुच्छिण्णं च सुहं अणोवमं जं च सिद्धाणं ॥ सिद्धि कहते हैं। २ अनध्यवसाय, संशय और (धम्मर. १६०)। विपर्ययरूप प्रज्ञान की निवृत्तिस्वरूप प्रमिति को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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