Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 494
________________ सिद्धजीव] सम्बुद्धबोध्या बुधसमितिनुक्तः पान्तु पापान्नतान् नः । ( प्रद्युम्न. १४ - ६३ ) । २५ णिक्कम्मा श्रट्टगुणा किचुणा चरमदेहदो सिद्धा । लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पाद-वयेहि संजुत्ता ।। णटुकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणो दट्ठा। पुरिसायारो अप्पा सिद्धो ज्झाएह लोयसिहरत्थो ।। (द्रव्यसं. १४ व ५१ ) । २६. णिद्धोयसव्वकम्म-मलत्ताउ संमत्त - णाण चारित तवलक्खणेण पुरिसक्कारेण णिरवसेसं णिद्वय प्रदुविहकम्म मलकलंक बारसविहेण तवप्पयावग्गिणा डहित्त् जाइकणगं वदेदिप्यमाणो लद्वपयासो कर किच्चयं पत्तो ततो सिद्ध सिद्धत्यसुतो संजाउत्ति । ( कर्मप्र. चू. १) । २७. सिद्धः सकलकर्मविप्रमुक्तः । ( समाधि. टी. १) । २८. सिध्यति स्म कृतकृत्योऽभवत् सेधति स्म वा गच्छत् प्रपुनरावृत्त्या लोकाग्रमिति सिद्धः, सितं वा बद्धं कर्म हमातं दग्धं यस्य स सिद्धः कर्म्म प्रपञ्चनिर्मुक्तः । ( स्थाना. अभय वृ. ४६ ) । २६. कम्मसुद्धा सरीरागंत सोक्खणाणड्ढा । परमपहृत्तं पत्ता जे ते सिद्धा हु खलु मुक्का || ( द्रव्यस्व. प्र. नयच. १०७ ) । ३०. अपगतसकलकर्माशाः परमसुखिन एकान्तकृतकृत्याः सिद्धाः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १७६ ) । ३१. प्राप्य द्रव्यादिसामग्री भस्मसात्कुरुते स्वयम् । कर्मेन्धनानि सर्वाणि तस्मात् सिद्ध इति स्मृतः ॥ ( भावसं वाम. ३५१) । ३२. सिद्धः कर्माष्ट निर्मुक्तः सम्यक्त्वाद्यष्ट सद्गुणः । जगत्पुरुषमूर्द्धस्थः सदानन्दो निरञ्जनः ।। ( धर्मसं. श्री. १० - ११५ ) । ३३. सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिर्येषां ते सिद्धाः सम्यक्त्त्राद्यष्टगुणोपेता वाऽनन्तानन्तगुण विराजमाना लोकाग्रनिवासिनश्च । ( कार्तिके. टी. १६२ ) । ३४ मूर्तिमद्देहनिर्मुक्तो लोके लोकाग्रसंस्थितः । ज्ञानाद्यष्टगुणोपेतो निष्कर्मा सिद्धसंज्ञकः ॥ ( लाटीसं. ४-१३०; पंचाध्या. २ - ६०८ ) । १ जो प्राठ कर्मों के बन्धन से मुक्त होकर प्राठ गुणों से सम्पन्न होते हुए लोक के प्रप्रभाग ( सिद्धालय) में स्थित हो चुके हैं व सदा वहीं उसी प्रकार सेस्थित रहने वाले हैं उन्हें सिद्ध जीव कहा जाता है । ६ जो पुद्गलमय शरीर से रहित होकर मुख व उदर प्रादि के रिक्त स्थानों के पूर्ण हो जाने से विशुद्ध ज्ञानमय जीवप्रदेशों से सघन हुए हैं तथा ल. १४६ Jain Education International ११६१ जैन - लक्षणावली | सिद्धगति ज्ञान व दर्शन में उपयुक्त हैं वे सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं। यह सिद्ध जीवों का लक्षण है । सिद्ध ( प्रभावक पुरुष ) - प्रञ्जन - पादलेप - तिलकगुटिका - सकलभूताकर्षण निष्कर्षण क्रियत्वप्रभृतयः सिद्धयः, ताभिः सिद्धयति स्म सिद्धः । (योगशा स्वो विव. २ - १६) | अंजन व पादलेप यादि सिद्धियों से जो सिद्धि को प्राप्त हुआ है उसे सिद्धपुरुष कहा जाता है। ऐसे पुरुष जिन शासन को प्रभावना में समर्थ होते हैं 1 सिद्ध ( प्रमाणप्रतिपन्न ) - संशया दिव्यवच्छेदेन हि प्रतिपन्नमर्थस्वरूपं सिद्धमुच्यते । प्र. क. मा. ३-२०, पृ. ३६९ ) । जिस पदार्थ का स्वरूप संशय श्रादि को दूर कर किसी अन्य प्रमाण से जाना जा चुका है उसे सिद्ध कहते हैं। ऐसा सिद्ध पदार्थ अनुमान के द्वारा सिद्ध करने के लिए योग्य होता है । सिद्ध केवलज्ञान - यत् ( केवलज्ञानम् ) पुनरशेषेषु कर्मागतेषु सिद्धत्वावस्थायां तत् सिद्ध केवलज्ञानम् । (ग्राव. नि. मलय. वृ. ७८, पृ ८३) । जो केवलज्ञान समस्त कर्मों के क्षीण हो जाने पर सिद्धत्व अवस्था में विद्यमान रहता है उसे सिद्धकेवलज्ञान कहा जाता है। सिद्धगति - १. जाइ जरा मरण भया संजोयविनोय- दुक्खसण्णा । रोगादिगा य जिस्से ण संति सा होदि सिद्धगई ।। (प्रा. पंचसं. १-६४; घव. पु. १, पृ २०४ उद्.; गो. जी. १५२) । २. सिद्धिः स्वरूपोपलब्धिः सकलगुणैः स्वरूपनिष्ठा, सा एव गतिः सिद्धिगतिः । (धव. पु. १, पृ. २०३ ) ; गदिकम्मोदयाभावा सिद्धगदी अगदी । अथवा भवाद् भवसंक्रान्तिर्गतिः, असंक्रान्तिः सिद्धगतिः । ( धव. पु. ७. पू. ६) । ३. जन्म-मृत्यु - जरा रा [रो]ग-संयोग-विगमादयः । न यस्यां जातु जायन्ते सा सैद्धा गदिता गतिः । ( पंचसं प्रमित. १ - १४१) । ४. अनन्तज्ञान-दर्शन-सुख वीर्यादिस्वस्वभावगुणोपलधिरूपाया सिद्धेर्गतिः प्राप्तिः जीवस्य भवतिं, 'परमप्रकर्ष प्राप्त रत्नत्रयपरिणत शुक्लध्यान विशेष संपादितपरमसंवर- निर्जराभ्यां सकलकर्मक्षयादात्मनो मुक्तव्यपदेशभाजः स्वाभाविकोर्ध्वगमन सद्भावाल्लोकाग्रसिद्धपरमेष्ठिपर्यायरूप सिद्धगतिर्भवतीत्य प्राप्तस्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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