Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 492
________________ सांतर-निरंतर द्रव्यवर्गणा) ११५६, जैन-लक्षणावलो [सिद्ध (परमात्मा) सांतर-निरंतर द्रव्यवर्गणानाम-सांतरणिरन्तर- सांशयिकी जिनः ।। (पंचसं. अमित. १, ३०४-५)। दव्ववग्गणत्ति व अधुब-प्रचित्तदव्ववग्गणा ति वा ४. सांशयिक देव-गुरु-धर्मेष्वयमयं वेति संशयमानस्य एगळं। सांतर-णिरंतरदव्ववग्गणा णाम जहण्णाग्रो भवति । (यो. शा. स्वो. विव २-३)। सांतर-णिरंतरदव्ववग्गणामो प्राढवेत्त पतेसुत्तरातो सर्वत्र तत्व में सन्देह ही बना रहना और निश्चय वग्गणातो अणंतातो। (कर्मप्र. च. १, १५-२०, का नहीं होना, इस प्रकार के अभिप्राय को सांशयिकपृ. ४२)। मिथ्यात्व कहा जाता है । ४. देव, गुरु और धर्म के जघन्य सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा से लेकर प्रदेशा. विषय में जो संशयालु रहता है उसके सांशयिकधिक के क्रम से अनन्त द्रव्यवर्गणाधों का नाम मिथ्यात्व होता है। सान्तर निरन्तरद्रव्यवर्गणा है। सान्तर-निरन्तर- सांसारिक सौख्य-१. कर्मपरवशे सान्ते दुःखेद्रव्यवर्गणा और ध्रुव-प्रचित्त द्रव्यवर्गणा इनका रन्तरितोदये। पापबीजे सुखेऽनास्थाश्रद्धानाकांक्षणा एक हो अर्थ है। स्मृता ।। (रत्नक. १२) । २. यत्तु सांसारिक सौख्यं सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष-१. इंदिय-मणोभवं जं तं रागात्मक मशाश्वतम् । स्व-परद्रव्यसम्भूतं तृष्णासंववहारपच्चक्खं ।। (विशेषा. ६५)। २. सांब्यव. सन्तापकारणम् ॥ मोह-द्रोह-मद-क्रोध माया-लोभहारिक इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम् । (लघीय, स्वो. निबन्धनम् । दुःखकारणबन्धस्य हेतुत्बाद् दुःखमेव विव. ४, पृ. ७४) । ३. इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं तत् ॥ (तत्त्वानु. २४३-४४) । ३. इदमस्ति परा. देशत: सांव्यवहारिकम् । (परीक्षा. २-५) । धीनं सुखं बाघापुरस्सरम् । व्युच्छिन्नं बन्धहेतुश्च ४. यदिन्द्रियाणां चक्षुरादीनामनिन्द्रियस्य च मनसः विषम दुःखमर्थतः ।। (पंचाध्या. २-२४५)। शतो दिशदं विज्ञानं तत सांव्यवहारिकम, १ जो सुख सातावेदनीय प्रादि पूर्णकर्म के प्राधीन गौणप्रत्यक्षमित्यर्थः । (ग्यायकु. ४, पृ. ७५)। है, विनश्वर है, जिसकी उत्पत्ति दुःखों से व्यवहित ५. समीचीनोऽबाधितः प्रवृत्ति-निवृत्तिलक्षणो व्यव- है, तथा जो पाप का कारण है उसे सांसारिक सुख हार: संव्यवहारः, स प्रयोजनमस्येति सांव्यवहारिक समझना चाहिए। ऐसे सुख को सुख न समझकर प्रत्यक्षम् । (प्र. क. मा. २-५, पृ. २२६) । वस्तुत: दुःख ही समझना चाहिए। ६. समीचीन: प्रवृत्तिनिवत्तिरूपो व्यवहारः संव्यव- सिति-सितिनाम ऊर्ध्वमधो वा गच्छत: सुखोत्तहारः, तत्र भव सांव्यवहारिकम् । (प्रमेयर. २-५)। रोवतारहेतुः काष्ठादिमयः पन्थाः। (व्यव. भा. ७. देशतो विशदं सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षम्, यज्ज्ञानं ___ मलय. वृ. १०-४०८)। देशतो विशदमीषन्निर्मलं तत्लांव्यवहारिकप्रत्यक्ष- ऊपर अथवा नीचे जाने के लिए जो सुखपूर्वक चढ़ने मित्यर्थः। (न्यायदी. पृ. ३१) । ८. यदिन्द्रिया- उतरने का कारणभत लकड़ी प्रादि से निमित मार्ग निन्द्रियनिमित्तं मतिज्ञानं तत्सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष- (नसनी) है उसका नाम सिति है। मित्युच्यते, देशतो वैशद्यसम्भवात् । (लघीय. अभय. सिद्ध (परमात्मा)---१. णटुट्ठकम्मबंधा अट्टवृ. ३, पृ. ११)। महागुणसमणिया परमा। लोयग्गदिदा णिच्चा १ इन्द्रिय और मन के प्राश्रय से जो ज्ञान होता है सिद्धा जे एरिसा होति ॥ (नि. सा. ७२) । उसे सांव्यवहारि प्रत्यक्ष कहते हैं। २. सण-अणतणाणं अणंतवीरियं अणंतसुक्खा य । सांशयिकमिथ्यात्व... १. सव्वत्थ संदेहो चेव, सासयसुक्ख प्रदेहा मुक्का कम्मरधेहिं । णिरुवमणिच्छयो णत्थि ति अहिणिवेसो संसमिच्छत्तं । मचलमखोहा निम्मिवियाजंगमेण रूवेण | सिद्धट्रा(धव. पु. ८, प. २०-२२) । २. कि वा भवेन वा णम्मिठिया वोसरपडिमाधूवा सिद्धा ।। (बोधप्रा. जनो धर्मोऽहिमादिलक्षणः । इति यत्र मतिद्वैधं भवेत १२-१३)। ३. मलरहिनो कलचत्तो अणिदिनो सांशयिकं हि तत् ।। (त. सा. ५-५)। ३. मिथ्या- केवलो विशुद्धप्पा । परमेट्री परमजिणो सिवंकरो त्वभषितस्तत्त्वं नादिष्टं रोचते कुधी:। सदादिष्ट- सासयो सिद्धो ॥ (मोक्षप्रा. ६) । ४. णिद्दड्ढ. मनादिष्टमतत्त्वं रोचते पुनः ॥ जिनेन्द्र भाषितं तत्त्वं अदकम्मा विसयविरत्ता जिदिदिया धीरा । तवकिम् सत्यमतान्यथा । इति द्वयाश्रया दष्टि: प्रोक्तः विणय-सील-सहिदा सिद्धा सिद्धिगदि पत्ता ।। (शील Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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