Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 491
________________ सासादन] ११५८, जैन-लक्षणावलो [सांकल्पिकी हिंसा पडमाणतो उ मिच्छत्तसंकमणकाले । सासायणो १३. असनं क्षेपणं सम्यक्त्वविराधनम्, तेन सह छावलितो भूमिमपतो व पवडतो।। प्रासादेउं व वर्तते यः स सासन इति निरुक्त्या सासन इत्याख्यानं गुलं प्रोहीरतो न सुठ्ठ जा सुयति । सं प्रावं सायंतो यस्यासो सासादनाख्यः, सासनसम्यग्दृष्टिरित्यर्थः । सस्सादो वा वि सासाणो ॥ (बहत्क. १२७-२८)। (गो. जी. म. प्र. १६)। १४, सम्यक्त्वासा ३. यदुदयाभावेऽनन्तानुबन्धिकषायोदयविधेयीकृतः नाम वर्तनं यस्य विद्यते । सासादन इति प्राहुर्मुनयो सासादनसम्यग्दृष्टिः । तस्य मिथ्यादर्शनस्योदये भाववे दिनः । (भावसं. वाम. २६३) । निवृत्तेऽनन्तानुबन्धिकषायोदय कलुषी कृतान्तरात्मा १ सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर जो जीव सम्य. जीवः सासादनसम्यग्दृष्टिरित्याख्यायते । (त. वा. क्त्वरूप रत्नपर्वत से गिरकर मिथ्यात्व भाव के ६, १, १३)। ४. प्रासादनं सम्यक्त्वविराधनम्, अभिमख हना है उसे सासादनसम्यग्दृष्टि जानना सह प्रासादनेन वर्तत इति ससादनो विनाशि- नाशि। ना विनाशि- चाहिए। २ जो मिथ्यात्व के संक्रमणकाल में--- जो मिथ्यान्व तसम्यग्दर्शनोऽप्राप्तमिथ्यात्व कर्मोदयजनितपरिणामो मिथ्यात्व के संक्रमण के अभिमुख होकर--उपशममिथ्यात्वाभिमखः सासादन इति भण्यते । (धव. पु. सम्यक्त्व से गिर रहा है वह जघन्य से एक समय १, पृ. १६३)। ५. मिथ्यात्वस्योदयाभावे जीवो. व उत्कर्ष से छह प्रावली काल तक उपरिम स्थान ऽनन्तानुबन्धिनाम् । उदयेनास्तसम्यक्त्वः स्मृतः सा- से गिरकर भमि को न प्राप्त हए प्राणी के समान सादनाभिधः ।। Xxx स्यात् सासादन सम्यक्त्वं अन्तराल में सासादनसम्यग्दृष्टि रहता है। जिस पाकेऽनन्तानुबन्धिनाम् । (त.सा. २-१६ व ६१)। प्रकार कोई मनुष्य गुड़ का स्वाद लेकर कुछ निद्रित ६. परिणामियभावगयं विदियं सासायणं गुणदाणं ।। होता हा अभी पूर्णरूप से नहीं सोया है वह सम्मत्तसिहरपडियं अपत्तमिच्छत्तमितलं ।। (भावसं. अव्यक्तरूप में उस गड़ का स्वाद लेता रहता है दे. १९७)। ७. आदिमसम्मत्तद्धा समयादो छाव उसी प्रकार सासादनसम्यग्दष्टि उपशमसम्यक्त्व से लित्ति वा सेसे । प्रणअण्णदरुदयादो णासियसम्मो भ्रष्ट होकर अव्यक्तरूप में उस सम्यक्त्व का स्वाद त्ति सासणक्खो सो।। (गो. जी. १६); ण य लेता रहता है। ४ प्रासादन का अर्थ सम्यक्त्व की मिच्छत्तं पत्तो सम्मत्तादो य जो य परिवडिदो। विराधना है, इस प्रासादन से जो सहित है उसे सो सासणोत्ति यो पंचमभावेण संजुत्तो।। (गो. जी. सासादन कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि ६५४) । ८. प्राद्यसम्यक्त्वतो भ्रष्टः पाकेऽनन्तानु- जिसका सम्यग्दर्शन तो नष्ट हो गया है, पर अभी बन्धिनाम । मिथ्यादर्शनमप्राप्तः सासनः कथ्यते जो मिथ्यात्व के उदय से उत्पन्न होन वाले प्रतत्वतराम ॥ (पंचसं. प्रमित. १-३०२, पृ. ४०)। श्रद्धानरूप परिणाम को प्राप्त नहीं हमा है ऐसे ६. पाषाणरेखासदशानन्तानुबन्धिक्रोध-मान-माया- मिथ्यात्व के अभिमख हए जीव को सासादन लोभान्यतरोदयेन प्रथममौपशमिकसम्यक्त्वात् पतितो करते हैं। मिथ्यात्वं नाद्यापि गच्छतीत्यन्तरालवर्ती ससादनः । सास्वादन-देखो सासादन । (बृ. द्रव्यसं. टी. १३)। १०. प्रासादनं सम्यक्त्व साहस..... साहसं च पदभतं कर्म वीरकथायां प्रतिविघातनम्, सहासादनेन वर्तते इति सासादनो पद्यते । (रत्नक. टी. ३-३३) । विनाशितसम्यग्दर्शनः अप्राप्तमिथ्यात्वकोदयजनितपरिणांमः । (मला. १२-१५४)। ११. मिथ्यात्व पाश्चर्यजनक कार्य का नाम साहस है, जिसकी स्यानुदयेऽनन्तानुबन्ध्युदये सति । सासादनः सम्य- चर्चा वीरकथा में की जाती है। ग्दृष्टि: स्यादुत्कर्षात् षडावली ॥ (योगशा. स्वो. सांकल्पिको हिंसा-सांकल्पिको अमु जन्तुमासा. विव. १-१६, पृ. १११)। १२. त्यक्तसम्यक्त्व- धाथित्वेन हन्मीति सङ्कल्पपूर्विका । (सा. ध. भावस्य मिथ्यात्वाभिमुखस्य च । तथाभ्युदीर्णानन्ता- स्वो. टी. २-८२)। नूबन्धिकस्य शरीरिणः ॥ यः सम्यक्त्वपरीणामः इस प्राणी को पाकर मैं प्रयोजन के वश उसका घात उत्कर्षेण षडावलिः। जघन्यैकसमयस्तत्स्वासादन- करता है, इस प्रकार के संकल्प के साथ जो हिसा मीरितम् ॥ (त्रि. श. पु. च. १, ३, ६०, २-३)। की जाती है उसे सांकल्पिको हिंसा कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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