Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 489
________________ साम्परायिक] ११५६, जैन-लक्षणावली [सालम्बध्यान स संपरायः, संसार इत्यर्थः, संपरायः प्रयोजनं यस्य उसे साम्य कहा जाता है। कर्मणः तत् कर्म सांपरायिकम् कर्म । संसारपर्यटन- साम्राज्य क्रिया-साम्राज्यमाधिराज्य स्थाच्चक्रकर्म साम्परायिकमित्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. रत्नपुरःसरम् । निधि-रत्नसमुद्भतभोगसम्पत्परम्प६-४)। रम् ॥ (म. पु. ३६-२०२) । १ प्रात्मा का पराभव करना ही जिसका प्रयोजन जिस सर्वोत्कृष्ट राज्य में चक्ररत्न के साथ नौ है ऐसे कर्म को सांपरायिक कहा जाता है। मिथ्या- निधियों और चौदह रत्नों के प्राश्रय से भोग दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसापरायसंयत तक कषाय के सम्पत्ति की परम्परा उपस्थित रहती है उसे साम्राउदयवश उत्पन्न परिणामों के अनुसार योग के ज्यक्रिया कहा जाता है। द्वारा लाया गया कर्म गोले चमड़े के प्राधित धूलि सारणा-१. दुःखाभिभवान्मोहमुपगतस्य निश्चेत. के समान जो स्थिति को प्राप्त होता है उसे साम्प- नस्य चेतनाप्रवर्तना सारणा। (भ. प्रा. विजयो. रायिक कर्म कहा जाता है। ७०)। २. सारणा दुःखाभिभवान्मोहं गतस्य चेतसाम्प्रत - नामादिषु प्रसिद्धपूर्वाच्छन्दादर्थे प्रत्ययः नाप्रापणा । (मन. प. स्वो. टी. ७-६८; भ. प्रा. साम्प्रतः । (त भा. १-३५, पृ. ११६); तेष्वेव मूला. ७०) । साम्प्रतेषु नामादीनामन्यतमग्राहिषु प्रसिद्धपूर्वकेषु १ दुःख से अभिभूत होकर मूर्छा को प्राप्त हुए को घटेषु सम्प्रत्ययः साम्प्रतः शब्दः । (त. भा. १-३५, सचेत करना, इसका नाम सारणा है। यह भक्तपृ. १२३)। प्रत्याख्यानमरण को स्वीकार करने वाले क्षपक के नाम व स्थापना आदि में जिसका वाच्य-वाचक मोदि ४० लिंगों में से एक है। सम्बन्ध प्रादि पूर्व में प्रसिद्ध है उस शब्द से जो सारस्वत- (लोकान्तिक देवविशेष) सरस्वती घटादि के विषय में ज्ञान होता है उसे साम्प्रत शब्द- चतुर्दशपूर्वलक्षणां विदन्ति जानन्ति सारस्वताः । (त. नय कहते हैं । ऋज़ सूत्र को अभीष्ट नाम स्थापना वृत्ति श्रुत. ४-२५)। प्रादि घटों में से जो अन्यतम को ग्रहण करने वाले जो लौकान्तिक देव चौदह पूर्वस्वरूप सरस्वती को शब्द हैं उनके उच्चारण करने पर जिनका वाच्य जानते हैं वे सारस्वत कहलाते हैं। वाचक सम्बन्ध पूर्व में प्रसिद्ध उन घटादिकों में सारा-सारा तु यदबहिः शुष्काकारमप्यन्तमध्ये जो ज्ञान होता है उसे साम्प्रत शब्द कहा जाता है। सार्द्रमास्ते यथा श्रीपर्णी-सोवर्चलादिकम् । (सूत्रकृ. साम्भोगिक-सम्भोगः साधनां समानसामाचारी- नि. शी. व. १८५, पृ. १३६) ।। कतया परस्परमुपध्यादिदान-ग्रहणसंव्यवहारलक्षणः, जो बाहर सूखे आकार में होकर भी मध्य में गीला स विद्यते यस्य स साम्भोगिकः । (स्थाना. स. रहता है उसका नाम सारार्द्र है। जैसे-श्रीपर्णी अभय. वृ. ३, ३, १७३, पृ. १३६)। और सोवर्चल आदि।। समान समाचारी वाले साधुनों के जो परस्पर सार्व-सार्वः इह-परलोकोपकारकमार्गप्रदर्शकत्वेन उपधि प्रादि का देना लेना होता है उसका नाम सर्वेभ्यो हितः । (रत्नक. टी. १-७) । सम्भोग है, इस सम्भोग से जो सहित होता है उसे जो इस लोक व परलोक में उपकार करने वाले साम्भोगिक कहा जाता है। मार्ग को दिखलाने के कारण सभी प्राणियों के लिए साम्य--- साम्यं तु दर्शन-चारित्रमोहनीयोदयापादि- हितकर होता है उसे सार्व कहा जाता है। यह तसमस्तमोह-क्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य वीतराग सर्वज्ञ के अनेक नामों के अन्तर्गत है। परिणामः । (प्रव. सा. अमत. वृ. १-७); साम्यं सालम्बध्यान-१. जिनरूपध्यानं खल्वाद्यः (सा. मोह-क्षोभविहीन आत्मपरिणामः । (प्रव. सा. अमृत. लम्बनः योग:) xxx ॥ (षोडशक. १४-१)। वृ. ३-४१)। २. धर्मध्यानं तु सालम्बं चतुर्भेदैनिगद्यते । प्राज्ञादर्शन और चारित्र मोहनीय के उदय से जो मोह पाय-विपाकाख्य-संस्थान विचयात्मभिः॥अथवा जिनएवं क्षोभ होता है उसके प्रभाव में जीव का राग- मुख्यानां पंचानां परमेष्ठिनाम् । पृथक् पृयक् तु द्वेषादि विकार से रहित निर्मल परिणाम होता है यद् ध्यानं तालम्बं तदपि स्मृतम् ॥ (भावसं. वाम. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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