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सामायिकशुद्धिसंयम]
११५५, जैन-लक्षणावलो
[साम्परायिक
प्राणियों में समता का भाव रखना, संयम का परि. उ कए चाउज्जामं अणुत्तरं धम्म । तिविहेण फासपालन करना, और उत्तम भावनाओं का चिन्तन यंतो सामाइयसंजनो स खलु ॥ (भगवती. २५, करना, इसे सामायिक शिक्षावत कहते हैं। द्रव्या- ७, ६, खण्ड ४, पृ. २६२) । थिक नय की अपेक्षा जो 'मैं एक प्रात्मा हूं'। इस १ जिस एक ही संयम में समस्त संयम का समावेश प्रकार का ज्ञान होता है तथा काय, बचन व मन होता है तथा जो अनुपम होकर दुरवबोध है उस की क्रियारूप पर्याय की विवक्षा न क के सर्व सामायिक संयम के परिपालन करने वाले को सावद्ययोग की निवृत्ति रूप जो एक निश्चय होता है, सामायिक संयत कहा जाता है। २ सामायिक के एवं व्रतभेद की अपेक्षा जो भिन्नता का बोध है; स्वीकार कर लेने पर जो जीव अनुपम चार महाव्रत इसका नाम समय है, इस समय को ही सामायिक स्वरूप चातुर्याम धर्म का मन, वचन व काय से कहा जाता है।
स्पर्श करता है ... उसका परिपालन करता है. वह सामायिक शुद्धिसंयम-देखो सामायिकसंयम। सामायिक संयत कहलाता है। सामायिक श्रत-१. तत्थ जं सामाइयं तं णाम- सामायिकसंयम-देखो सामायिकसंयत । १. सम ट्रवणा-दव्व-खेत्त-काल-भावेसु समत्तविहाणं वण्णेदि। सम्यक सम्यग्दर्शन-ज्ञानानुसारेण, यता: बहिरंगा(धव. पु. १, पृ. ९६); तत्थ सामाइयं दब-खेत- न्तरंगास्रवेभ्यो विरता: संयताः । सर्वसावद्ययोगात काले अप्पिदण परिसजादं प्राभोगिय परिमिदापरि- विरतोऽस्मीति सकलसावद्ययोगविरतिः सामायिकमिदकालसमाइयं परूवेदि । (धब. पु. ६, पृ. शुद्धिसंयमो द्रव्याथिकत्वात् । (धव. पु. १, पृ. १८८) । २. एवं विहं सामाइयं कालमम्सिदूण भर. ३६६); स्वान्तर्भाविताशेषसंयमविशेषकयमः हादिखेत्ते च संघडणाणि गुणट्ठाणानि च अस्सि दूण सामायिक शुद्धिसंयम: । (धव. पु. १, पृ. ३७०)। परिमिदापरिमिदसरूवेण जेण परूवेदि xxx. २. सामायिकमवस्थानं सर्वसावद्ययोगस्याभेदेन (जयध. १, पृ. ६६) । ३. Xxx तत्-(सामा- प्रत्याख्यानमवलम्ब्य प्रवृत्तमथवाऽवघृतकालमनवयिक.) प्रतिपादक शास्त्र सामायिकश्रुतम् । (गो. धृतकालं सामायिकमित्याख्यायते । (चा. सा. पृ. जी. जी. प्र. ३६७) ।
३७)। ३ क्रियते यदभेदेन ब्रतानामधिरोपणम् । १ जिस अंगबाह्य श्रुत में द्रव्य, क्षेत्र, काल और कषायस्थूलतालोढः स सामायिकसंयमः । (पंचसं. भाव का प्राश्रय करके तथा पुरुषसमह को देखकर अमित १-१२६) । परिमित या अपरिमित काल पर्यन्त सम्पन्न होने १ 'सम' का अर्थ सम्यक अर्थात सम्यग्दर्शन व वाले सामायिक अनुष्ठान की प्ररूपणा की जाती है ज्ञान का अनुसरण है तथा 'यत्' का अर्थ है बहिरंग उसे सामायिकश्रुत कहते हैं।
और अन्तरंग प्रास्रवों से विरत, तदनुसार अभिप्राय सामायिकसमय-देखो सामायिककाल । मूर्धरुह- यह हुग्रा कि जो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानपूर्वक मष्टि-वासोबन्धं पर्यकबन्धनं चापि । स्थानम पवेशनं समस्त प्रास्त्रवों से विरत हो चके हैं वे संयत कह. वा समयं जानन्ति समयज्ञाः ।। (रत्क. ४-८)। लाते हैं। 'मैं सर्वसावद्ययोग से विरत है' इस प्रकार बालों का बन्धन, मुट्ठो का बन्धन, वस्त्र का बन्धन, से समस्त सावद्ययोग से विरत होने का नाम पर्यंक पासन का बन्धन, कायोत्सर्ग से प्रवस्थान सामायिकशुद्धिसंयम है। प्रथवा उपवेशन; इनको सामायिककाल गाना जाता साम्परायिक-- १. तत्प्रयोजनं साम्परायिकम । है, अर्थात जब तक ये स्वयं न छुटे या कष्टप्रद होने तत्प्रयोजनं कर्म साम्परायिकमित्युच्यते, यथा ऐन्द्रपर बुद्धिपुरःसर उन्हें छोड़ा न जाय तब तक सामा. महिक मिति । (त. वा. ६, ४, ५); मिथ्यादृष्ट्यायिक में स्थित रहना चाहिए।
दीनां सूक्ष्मसाम्परायान्तानां कषायोदय पिच्छिलपरिसामायिक संयत-१. संगहियसयलसंजममेय- णामानां योगवशादानीतं कर्म भावेनोपश्लिष्यमाणं जममणुत्तरं दुरवगम्म । जीवो समन्वहंतो सामाइय- प्रार्द्रचर्माश्रितरेणवत् स्थितिमापद्यमानं सांपरायिकसंजदो होई ॥ (प्रा. पंचसं. १-१२६; धव. पु. १, मित्युच्यते । (त. वा. ६, ४, ७)। २. सं सम्यक, प. ३७२ उद्.; गो. जी. ४७०) । २. सामाइयम्मि पर उत्कृष्टः, अयो गतिः पर्यटनं प्राणिनां यत्र भवति
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