Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 486
________________ सामायिक ] १२, पृ. ३०५ ) । १ जो सर्वसावद्य योग का त्याग कर चुका है, तीनों गुप्तियों से संरक्षित है, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका है, त्रस स्थावर जीवों में समभाव रखता है; संयम, तप और नियम में निरत रहता है, जिसे राग-द्वेष विकृत नहीं करते हैं, तथा जो प्रार्त और रौद्र ध्यान से रहित है, ऐसे महापुरुष के सामायिक होता है । २ जीवन और मरण, लाभ श्रौर प्रलाभ, संयोग धौर वियोग, शत्रु और मित्र तथा सुख और दुःख इनमें समान --हर्ष-विषाद से रहित रहना, इसका नाम सामायिक है । ५ काल का नियम करके समस्त सावद्य योग का त्याग करना, इसे सामायिक कहते हैं । ११ जो राग-द्वेष से रहित होकर सब प्राणियों को अपने समान देखता है उसे सम कहा जाता है, प्राय का श्रर्थ लाभ होता है, सम के प्राय का नाम समाय है, यह समाय ही जिसका प्रयोजन है उसे सामायिक कहते हैं । यह सामायिक का निरुक्त लक्षण है । इसका अभिप्राय यही है कि राग-द्वेष से रहित होकर जो दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की प्राप्ति के प्रभिमुख होना, इसे सामायिक समझना चाहिए । १४ तीनों सन्ध्याकालों में पक्ष, मास व सन्धि के दिनों में श्रथवा अपनी इच्छानुसार किसी भी समय में बाह्य व अन्तरंग सभी पदार्थों में कषाय का जो निरोध किया जाता है, इसका नाम सामायिक है सामायिककाल - देखो सामायिकसमय । पुव्वण्हे महे वरण्हे तिहि वि णालियाछक्को । सामाइस कालो सविनय णिस्सेस णिछिट्टो || (कार्तिके ३५४)। सामायिक का काल पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न इन तीन सन्ध्याकालों में छह घड़ी तक कहा गया है। सामायिकक्षेत्र - जत्थ ण कलयलसद्दो बहुजणसंघट्टणं ण जत्थत्थि । जत्थ ण दंसादीया एस पत्थ हवे देसो || ( कार्तिके. ३५३ ) । जहां कल-कल शब्द न हो, बहुत जनों का श्रानाजाना न हो, तथा डांस-मच्छर धादि न हों; ऐसा प्रशस्त देश सामायिक के लिए उपयोगी होता है । सामायिकचारित्र - देखो सामायिक । सर्वे जीवाः ल. १४५ Jain Education International [ सामायिक प्रतिमा al, केवलज्ञानमया इति भावनारूपेण समतालक्षणं सामायिकम् प्रथवा परमस्वास्थ्यबलेन युगपत्समस्तशुभाशुभ संकल्प-विकल्पत्यागरूपसमाधिलक्षणं निर्विकारस्वसंवित्ति बलेन राग-द्वेषपरिहाररूपं वा, स्वशुद्धात्मानुभूतिबलेनार्त्त - रौद्रपरित्यागरूपं समस्त सुखदुःखादिमध्यस्थरूपं चेति । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३५) । वा, सब जीव केवलज्ञान स्वरूप हैं, इस प्रकार के समताभाव का नाम सामायिकचारित्र है । प्रथवा शुभाशुभ संकल्प विकल्पों के त्यागरूप समाधि को सामायिक चारित्र का लक्षण जानना चाहिए। राग-द्वेष के परित्यागपूर्वक आतं रौद्र का परित्याग भी सामायिक का लक्षण है । सामायिक प्रतिमा - १ चतुरावर्त्तत्रितयश्चतु:प्रणामः स्थितो यथाजातः । सामायिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी || ( रत्नक. ५ - १८ ) । २. माध्यस्थ्यैकत्वगमनं देवतास्मरणस्थितेः । सुखदुःखारिमित्रादो बोध्यं सामायिक व्रतम् || ( ह. पु. ५८ - १५३ ) । ३. जो कुणदि काउसग्गं बारसश्रावत्तसंज [ जु] दो धीरो । णमणदुगं पि करतो चदुपणामो पसण्णप्पा ॥ चितंतो ससरूवं जिणबिंबं श्रहव अक्खरं परमं । ज्झायदि कम्मविवायं तस्स वयं होदि सामइयं ॥ ( कार्तिके. ३७१-७२) । ४. चउरगृहं दोसहं रहिउ पुव्वाइरियकमेण । जिणु वंदइ संझइ तिहिमि सो तिज्जउ नियमेण ॥ ( सावयध. दो. १२ ) । ५. प्रार्त्त - रौद्रपरित्यक्तस्त्रिकालं विदधाति यः । सामायिकं विशुद्धात्मा स सामाविकवान् मतः ॥ ( सुभा. सं. ८३५) ६ रौद्रार्तमुक्तो भवदुःखमोची निरस्तनिःशेषकषायदोषः । सामायिकं यः कुरुते त्रिकालं सामायिकस्थः कथितः स तथ्यम् || ( श्रमित. श्री. ७-६९ ) । ७ प्रिये प्रिये विद्विषि बन्धुलोके समानभावो दमितेन्द्रियाश्वम् । सामायिकं यः कुरुते त्रिकालं सामायिकी स प्रथितः प्रवीणैः ।। (धर्मप. २० - ५५ ) । ८. होऊण सुईचे गिम्मि सगिहे व चेइयाहिमुहो । अण्णत्त सुइपए से पुव्वमहो उत्तरमुहो व ।। जिणवपण धम्मचेइय परमेट्ठि- जिणालयाण णिच्च पि । जं वंदणं तियालं कीरइ सामाइयं तं खु ॥ ( वसु श्रा. २७४, २७५) । ६. दृङ्मूलोत्तरगुणग्रामाभ्यासविशुद्धधीः । ११५३, जैन - लक्षणावली For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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