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सालम्बध्यान
११५७, जैन-लक्षणावली
[सासादन
६३८ व ६४३) । ३. सह पालम्बनेन चक्षरादि- वच्च सावधिका । (त. भा. सिद्ध. व. ५-४)। ज्ञानविषयेण प्रतिमादिना वर्तत इति सालम्बनः । श्रत के उपदेश की नित्यता के समान (योगवि. टी. १६)।
विनाश से संयक्त होने पर भी प्रवस्थान के बने १ जिन (अरहन्त)के रूप के चिन्तन को सालम्ब योग रहने से जो प्रवाह रूप से नित्यता है उसे सावधि कहा जाता है। २ प्राज्ञा व अपायविचय प्रादि चार नित्यता कहा जाता है। जैसे -पर्वत, समुद्र और के प्रालम्बन से सहित धर्मध्यान को सालम्ब कहा वलय प्रादि के प्रवस्थान की नित्यता। जाता है। अथवा पांच परमेष्ठियों का जो पृथक सावनसंवत्सर-१. सावन मास स्त्रिशदहोरात्र एव, पथक चिन्तन किया जाता है उसे सालम्बध्यान एष च कर्म मास ऋतुमास श्चोच्यते । एवंविधमाना गया है। ३ जो योग चाक्षष प्रादि ज्ञान की द्वादशमासनिष्पन्नः सावनसंवत्सरः, स चायं त्रीणि विषयभूत प्रतिमा प्रादि के साथ रहता है उसे शतान्यह्रां षष्ठयधिकानि । (३६०)। (त. भा. सालम्बन योग कहते हैं।
सिद्ध. वृ. ४-१५)। २. तथा सवनं कर्मसु प्रेरणं सालम्बन योग-देखो सालम्बध्यान ।
'ष प्रेरणे इति वचनात्, तत्प्रधानः संवत्सरः सवनसावद्ययोग-सर्वशब्देन तत्रान्तर्बहिवर्तिपदार्थतः। संवत्सरः । तथा चोक्तम् -बे नालिया मुहुत्तो सट्ठी प्राणोच्छेदो हि सावा सैव हिंसा प्रकीर्तिता ॥ उण नालिया अहोरत्तो। पन्नरस अहोरत्ता पक्खो योगस्तत्रोपयोगो वा बुद्धिपूर्वः स उच्यते । सूक्ष्म- तीसं दिणा मासो ।। संवच्छरो उ बारस मासा इचाबद्धिपवों यः स स्मतः योग इत्यपि ॥ (लाटीसं. पक्खा य ते चउवीसं। तिन्नेव सया सट्रा हवंति ४, २५०-५१)।
राइंदियाणं तु ।। एसो उ कमो भणियो निग्रमा सावध का प्रथं प्राणविधातरूप हिंसा है, योग का संवच्छरस्स कम्मस्स । कम्मोत्ति सावणोति य उउ. अर्थ है उसमें बुद्धिपूर्वक उपयोग लगाना, सूक्ष्म जो इत्तिय तस्स नामाणि ।। [ज्योतिष्क. ३०-३२] ।। प्रबुद्धिपूर्वक योग होता है उसे भी योग माना गया (सूर्यप्र. मलय. वृ. १०, २०, ५७ उद्.) । है । अभिप्राय यह है कि प्राणिहिंसा में बुद्धिपूर्वक या २ जिस वर्ष में प्रमुखता से कर्म को प्रेरणा मिलती अबुद्धिपूर्वक जो उपयोग किया जाता है वह सावद्य- है उसे सावनसंवत्सर कहा जाता है । उसका क्रम योग कहलाता है । सर्वसावध में सर्व शब्द से अन्त- इस प्रकार है--दो नालियों का मुहूर्त, साठ नालियों रंग व बहिरंग सभी पदार्थों की विवक्षा रही है। का दिन-रात, पन्द्रह दिन-रात का पक्ष अथवा सावध वचन- १. जत्तो पाणवधादी दोसा जायंति तीन सौ साठ रात-दिन का संवत्सर होता है । सावज्जवयणं च । अविचारित्ता थेणं थेणत्ति जहेव कर्मसंवत्सर, श्रावण (सावन) संवत्सर और ऋतुमादीयं ।। (भ. प्रा. ८३१)। २. छेदन-भेदन- संवत्सर ये उसके नाम हैं। मारण-कर्षण-वाणिज्य-चौर्यवचनादि । तत्सावा सावित्रसंवत्सर-सूर्यमासस्त्वमवगन्तव्यः--त्रिशद यस्मात् प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते । (पु. सि. ९७)। दिनान्यधं च (३०३) । एवंविधद्वादशमासनि३. प्रारम्भाः सावद्या विचित्रभेदा यतः प्रवर्तन्ते । पन्नः संवत्सर: सावित्रः । स चायं त्रीणिशतान्यह्नां सावद्यमिदं ज्ञेयं वचनं सावध वित्रस्तः ।। (अमित. षटषष्ठयधिकानि (३६६)। (त. भा. सिद्ध. व. श्रा. ६-५३) ।
४-१५)। १ जिस वचन से प्राणिहिंसा प्रादि बहुत से दोष साढ़े तीस (३०१) दिन का सूर्यमास होता है। उत्पन्न होते हैं उसे सावधवचन कहते हैं। जैसे-- इस प्रकार के बारह मासों से एक सावित्रसंवत्सर विना विचारे चौर को चोर कहना, इत्यादि । होता है। (३०३४१२=३६६) । २ जो वचन छेदने, भेदने, मारने, खींचने, व्यापार सासन-देखो सासादन । करने और चोरी करने आदि का सूचक होता है सासादन -१. सम्मत्त-रयणपव्वयसिहारादो मिवह सावधवचन कहलाता है।
च्छभावसमभिमुहो। णासियसम्मत्तो सो सासणसावधिनित्यता - श्रुतोपदेशनित्यतावदुत्पत्ति- णामो मुणेयन्वो ॥ (प्रा. पंचसं. १-६; धव. पु. १, प्रलयवत्त्वेऽप्यवस्थानात् पर्वतोदधि-वलयाद्यवस्थान- पृ. १६६ उद्.; गो. जी. २०) । २. उवसमसम्मा
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