Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 427
________________ समयमूढ] १०६४, जैन-लक्षणावली [समवाय समयप्रबद्ध अर्थात् एक समय में बंधे हुए कर्मप्रदेशों श्रितः । (सा. घ. स्वो. टी. २-५१) । का वेदन करने से जो प्रदेशाग्र शेष रहें और जिनका १ समीचीन दयापूर्वक जो जीवों में प्रवर्तन होता है अपरिशेषित या सामस्त्यरूप से एक समय में उदय उसका नाम समय है, इस प्रकार के समय से जो पाने पर फिर कोई कर्मप्रदेश शेष न रहे, ऐसे उन सहित हो उसे समयिक कहा जाता है। २ गृहस्थ शेष कर्मप्रदेशानों को समय प्रबद्धशेष कहते हैं। हो, चाहे मुनि हो, जो जिनागम के आश्रित होता समयमढ--१. रत्तवड-चरग-तावस-परिहत्तादी य है उसे समयिक कहते हैं। अण्णपासंडा । संसारतारगत्ति य जदि गेण्हइ समयमूढो समयोग-- लोगे पूण्णे एगा वग्गणा जोगस्सेत्ति । सो ॥ (मला. ५-६२) । २. अज्ञानिजनचित्तचम- लोगमेत्तजीवपदेसाणं लोगे पूण्णे समजोगो होदि कारोत्पादकं ज्योतिष्क-मंत्र वादादिकं दृष्ट्वा वीत- त्ति वुत्तं होदि। (धव. पु. १०, पृ. ४५१) । रागसर्वज्ञप्रणीतसमयं विहाय कुदेवागम-लिङ्गिनां लोकपूरणसमुद्घात में लोक के पूर्ण होने पर योग को एक वर्गणा होती है। अभिप्राय यह है कि लोक रादिकरणं समय मूढत्वम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४१)। के पूर्ण होने पर लोक प्रमाण जीवप्रदेशों का सम१ रक्तपट, चरक, तापस और परिव्राजक तथा योग होता है। अन्य भी पाखण्डी साधुओं को, ये संसार से पार समतित्व-देखो समवाय । १. द्रव्य-गुणानामेकाकरने वाले हैं, ऐसा मान करके जो ग्रहण करता है स्तित्वनिर्वृत्तत्वादनादिरनिधना सहवृत्तिहि समवउसे समयमढ कहते हैं। तित्वम्, स एव समवायो जैनानाम् । (पचा. का. समयविरुद्ध --- समयविरुद्धं स्वसिद्धान्त विरुद्धम् । अमत. व. ५०)। २. समवृत्तिः सहवृत्तिर्गुण-गुणिनो: यथा साङ्ख्यस्यासत्कारणे कार्य सद्वैशेषिकस्य कथंचिदेकत्वेनानादितादात्म्यसम्बन्ध इत्यर्थः । (पंचा. इत्यादि । (प्राव. नि. मलय. व. ८८३, पृ. ४८३)। का. जय. व. ५०)। अपने मत के विरुद्ध वचनं को मयविरुद्ध कहा १ द्रव्य और गुणों के एक अस्तित्व से रचित होने जाता है। जैसे - सत्कार्यवादी सांख्य का कारण में के कारण अनादि-अनन्त जो सहवत्ति-साथ साथ कार्य को प्रसत कहना तथा वैशेषिक का उसे कारण रहना है, इसे समतित्व नाम से कहा जाता है। में सत् कहना; इत्यादि। यह ३२ सूत्रदोषों में वही जैनों के यहां समवाय सम्बन्ध है। २४वां है। समवदानकर्म-- समयाविरोधेन समवदीयते खण्डसमयसत्य--१. प्रतिनियतषट्तय द्रव्य-पर्यायाणा- यत इति समवदानम, समवदानमेव समवदानता। मागमगम्यानां याथात्म्याविष्करणं य द्वचस्तत्समय- कम्मइयपोग्गलाण मिच्छत्तासंजम-जोग-कसाएहि सत्यम् । (त. वा. १,२०, १२, पृ. ७५; धव. पु. अट्टकम्मसरूवेण सत्तकम्मसरूवेण छकम्मसरूवेण वा १, पृ. ११८)। २. द्रव्य-पर्याय भेदानां याथात्म्य- भेदो समुदाणद इति वुत्तं होदि। (धव. पु. १३, प्रतिपादकम् । यत्तत्समयसत्यं स्यादागमार्थपर वचः॥ पृ. ४५)। (ह. पु. १०-१०७)। ३. सिद्धान्तः समयस्तेन आगमाविरोध से जो खण्डित या विभाजित किया प्रसिद्धान्तप्ररूपणम् । वच: समयसत्यं स्यात् प्रमाण- जाता है उसका नाम समवदान है। समवदान और नयसंश्रयम् ।। (प्राचा. सा. ५-३८)। समवदानता इन दोनों में कोई अर्थभेद नहीं है। १ पागमगम्य प्रतिनियत छह द्रव्यों व उनकी पर्यायों मिथ्यात्व, असंयम, योग और कषायों के द्वारा की यथार्थता के प्रगट करने वाले वचन को समय- पाठ, सात अथवा छह कर्मों के स्वरूप से जो कर्मसत्य कहते हैं। पुद्गलों का भेद होता है उसे समवदानता कहा समयिक---१. समयिकमिति सम्यक्शब्दार्थ समित्यु- जाता है। पसर्गः, सम्यक् अयः समयः-सम्यग्दयापूर्वकं जीवेषु समवाय-देखो समवर्तित्व । १. समवत्ती समप्रवर्त्तनम, समयोऽस्यास्तीति अतोऽनेकस्वरादिति वायो अपुधब्भदो य अजदसिद्धो य । (पंचा. का. मत्वर्थीय इक्प्रत्ययः । (प्राव. नि. मलय. वृ. ८६४, ५०) । २. समवाये (धव. 'सलक्षचतुःषष्ठिपदसहस्र ४७४) । २. समयिको गही यतिर्वा जिनसमय- १६४०००' इत्यधिकः पाठः) सर्वपदार्थानां समवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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