Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 481
________________ साथु] ११४८, जैन-लक्षणावलो [साध्य मणी। खिदि-उरगंबरसरिसा परमपविमग्गया भोजन में सन्तुष्ट रहते हैं उन्हें साधु कहा जाता साहू ॥ (घव. पु. १, पृ. ५१); अणतणाण-दसण- है। ५ जो दीर्घ काल से प्रवजित (दीक्षित) हो वीरिय-विरह-खइयसम्मत्तादीणं साहया साहू णाम। उसे साधु कहते हैं। ७ जो अतिशय शान्त, गम्भीर, (धव. पु.८, पृ. ८७)। १३. ज्ञान-दर्शन-चारित्र- सावध योग से विरत, पांच प्रकार के प्राचार के लक्षणाभिः पौरुषेयीभिः शक्तिभिर्मोक्षं साधयन्तीति ज्ञाता, परोपकार में विरत, ध्यान-अध्ययन में साघवः । (त. भा. सिद्ध. व. ६-२३)। १४. साध- तत्पर और उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होने वाले यन्ति रत्नत्रयमिति साधवः । (भ. प्रा. विजयो. भावों से युक्त होते हैं उन्हें साधु माना जाता है । ४६)। १५. उम्गतवतवियगत्तो तियालजोएण १२ जो अनन्त ज्ञान-दर्शनादिरूप प्रात्मा के स्वरूप गमिय-ग्रह रत्तो। साहियमोक्खस्स पहो झामो सो को सिद्ध करते हुए पांच महाव्रतों के धारक, तीन साहुपरमेट्ठी ।। (भावसं. दे ३७६) । १६. चिर- गस्तियों से रक्षित, अठारह हजार शीलों के धारक कालभावितप्रव्रज्यागुणः साधुः । (चा. सा. पृ. ६६)। और चौरासी लाख गुणों से सम्पन्न होते हैं उन्हें १७. कषायसेनां प्रतिबन्धिती ये निहत्य धीराः शम- साधु समझना चाहिए। शील-शस्त्रः। सिद्धि विबाधां लघु साधयन्ते ते साधुवर्णजनन-साधुमाहात्म्यप्रकाशनं साधुवर्णसाधवो मे वितरन्तु सिद्धिम् ।। (अमित. श्रा. १, जननम् । (भ. प्रा. विजयो. व भूला. ४७) । ५)। १८. त्यक्तबाह्याभ्यन्तरग्रन्थो नि:कषायो साध के माहात्म्य के प्रगट करने को साधुवर्णजनन जितेन्द्रियः । परीषहसहः साधुर्जातरूपधरो मतः ॥ कहा जाता है। (धर्मप. १८-७६)। १६. दसण-णाणसमग्गं मग्गं साधुसमाधि-देखो 'साधु' व 'समाधि' । मोक्खस्स जो हु चारित्तं । साधयदि णिच्चसुद्धं १. साहूणं समाहिसंघारणदाए-दसण-णाण-चरिसाहू स मुणी णमो तस्स ।। (द्रव्यसं. ५४)। तेसु सम्ममवट्ठाणं समाही णाम, सम्म साहणं धारणं २०. अभ्यन्तरनिश्चय चतुर्विधाराधनाबलेन च संधारणं, (साहूणं) समाहीए संधारणं (साहु) बाह्याभ्यन्तरमोक्षमार्गद्वितीयनामाभिधेयेन कृत्वा समाहिसंधारणं । (धव. पु. ८, पृ. ८८)। २. यः कर्ता वीतरागचारित्राविनाभूतं स्वशुद्धात्मानं भाण्डागारहुताशोपशमनवज्जातविघ्नमनुपद्य। संसाधयति भावयति स साधुर्भवति । (बृ. द्रव्यसं. टी. धारणं हि तपसः साधूनां स्यात् समाधिरिह ।। (ह. ५४)। २१. सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो व्याख्यानादिषु पु. ३४-१३६) । ३. भाण्डागाराग्निसंशान्तिसमं कर्मसु । विरक्तो मौनवान् ध्यानी साधुरित्यभि- मुनिगणस्य यत् । तपःसंरक्षणं साघुसमाधिः स घीयते ॥ (नीतिसा. १७)। २२. चिरदीक्षित: उदीरितः ॥ (त. श्लो. ६, २४, १०) । साधुः। (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४; कातिके. टी. १ दर्शन, ज्ञान और चारित्र में भली भांति अव४५६) । २३. दर्शन-ज्ञान-चारित्रत्रिकं भेदेतरात्म- स्थित होने का नाम समाधि है, साधुओं की समाधि कम् । यथावत्साधयन् साधुरेकान्तपदमाश्रितः ॥ को साधुसमाधि कहा जाता है। (धर्मसं. श्रा. १०-११८)। २४. मार्ग मोक्षस्य साध्य-१. साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धंxxxi चारित्रं सदृग्ज्ञप्तिपुरस्सरम् । साधयत्यात्मसिद्धयर्थं (प्रमाणसं. २०; न्यायवि. १७२) । २. अव्युत्पत्तिसाधुरन्वर्थसंज्ञकः ॥ (लाटोसं. ४-१८६; पंचाध्या. संशय-विपर्यासविशष्टोऽर्थः साध्यः । (प्रमाणसं. २-६६७)। स्वो. विव. २०) । ३. साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्ध१ जो बाह्य व्यापार से रहित होकर चार प्रकार मनुमेयम् । (सिद्धिवि. वृ. ३-३, पृ. १७७) । की पाराषना का निरन्तर पाराधन करते हैं तथा ४. इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम् । (परीक्षा. ३, परिग्रह को छोडकर ममत्वभाव से रहित हो चके १५)। ५. शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्ध साध्यम् । यत् हैं ऐसे वे साध कहलाते हैं। २ जो मधकर (भ्रमर) प्रत्यक्षादिप्रमाणबाधितत्वेन साधयितुं शक्यम्, वाद्यके समान दाता को कष्ट न पहुंचा कर अनुद्दिष्ट भिमतत्वेनाभिप्रेतम्, सन्देहाद्याक्रान्तत्वेनाप्रसिद्धम्, भोजन को प्राप्त करते हैं, तत्त्व के ज्ञाता हैं, तदेव साध्यम् । (न्यायदो. पृ. ६६)। प्रासक्ति से रहित हैं, तथा भिक्षावृत्ति से प्राप्त १ जो साधने के लिए शक्य, वादी को प्रभीष्ट और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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