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साध्याभास] ११४६, जैन-लक्षणावली
[सामानिक प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाण से सिद्ध न हो उसे साध्य ८, पृ. १७); xxx परमत्थदो पुण एगकहा जाता है।
समयं बंधिदूण विदियसमए जिस्से बंधविरामो साध्याभास-१. xxx ततोऽपरम् । साध्या- दिस्सदि सा सांतरबंधपयडी। (धव. पु. ८, पृ. भासं यथा सत्ता भ्रान्ते: पुरुषधर्मतः ।। (प्रमाणसं. १००)। २०); ततोऽपरं साध्याभासम् । यथा सत्ता, सद- काल के क्षय से जिस प्रकृति के बन्ध की व्यच्छित्ति सदेकान्तयोः साधनासम्भवः, तदतदुभयधर्माणाम- सम्भव है उसे सान्तरबन्धप्रकृति कहते हैं । सिद्ध विरुद्धानकान्तिकत्वम् । (प्रमाणसं. स्वो. वि. यथार्थतः एक समय बन्ध को प्राप्त होकर दूसरे २०)। २. xxx ततोऽपरम् । साध्याभासं समय में जिसके बन्ध का विश्राम देखा जाता है विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ।। (न्यायवि.१७३)। उसे सान्तरवन्धप्रकृति कहा जाता है। ३. ततोऽपरं साध्याभासम् । (प्रमाणनि. पृ. ६१)। सापराध---नियतमयमशुद्धं स्वं भजन सापराधः १ साध्य से विपरीत को-जो साधने के लिए xxx ॥ (समयक. E-८)। शक्य न हो; वादो को अभीष्ट न हो, अथवा अन्य जो नियम से अशुद्ध प्रात्मा का पाराधन करता है प्रमाण से सिद्ध हो; उसे साध्याभास कहा जाता है। वह सापराध (अपराधी) है। कारण यह कि इस साध्ववर्णवाद-अहिंसाव्रतमेवैषां न यूज्यते षड़- प्रकार के प्राचरण से उसके कर्मबन्ध होने वाला है। जीवनिकायाकुले लोके वर्तमानाः कथमहिंसकाः सापेक्षत्व-तदनिराकृतेः (अनेकान्तानिराकृतेः) स्युः, केशोल्लुंचनादिभिः पीडयतां च कथं नात्मवधः, सापेक्षत्वम् । (लघीय. स्वो. विव. ७२)। अदष्टमात्मनो विषयं धर्म पापं तत्फलं च गदतां अनेकान्त का निराकरण नहीं प्रकरना, यही नयोंका कथं सत्यव्रतम्, इति साध्ववर्णवादः । (भ. प्रा. सापेक्षत्व है।। विजयो. ४७)।
सामग्री--सकलकारककलारूपा किल सामग्री । छह काय के जीवों से व्याप्त लोक में रहते हुए इन (न्यायकु. ३, पृ. ३५) । साधनों का अहिंसावत सुरक्षित नहीं रह सकता, समस्त कारकों के समह का नाम सामग्री है। केशलुंचन आदि के द्वारा पीड़ित होने से प्रात्मवध इसका सम्बन्ध कारक-साकल्य प्रकरण से है। का भी दोष सम्भव है, तथा स्वयं न देखे गये पुण्य- सामानिक-१. प्राज्ञैश्वर्यवजितं यत्समानायुर्वीर्यपाप व उनके फल का कथन करते हुए उनका परिवार-भोगोपभोगादि तत्समानम्, तस्मिन् समाने सत्यव्रत भी सुरक्षित नहीं रह सकता; इत्यादि भवाः सामानिकाः । (स. सि. ४-४) । २. इन्द्रप्रकार से साधुओं के विषय में दोषारोपण करना, समानाः सामानिकाः अमात्य-पितृ-गुरूपाध्याय-महयह साधु-अवर्णवाद कहलाता है।
तरवत्केवलमिन्द्रत्वहीनाः। (त. भा. ४-४) । सान-स्यति छिनत्ति हन्ति विनाशयति अनध्यव- ३. तत्स्थानार्हत्वात्सामानिकाः। तेषामिन्द्राणामासायमित्यवग्रहः सानम् । (धव. पु. १३, पृ. २४२)। ज्ञश्वर्यवजितं यत् स्थान प्रायुर्वीर्य-परिवार-भोगोपजो अनध्यवसाय को नष्ट करता है उसे सान कहा भोगादितस्तेषां समानम्, समाने भवाः सामानिकाः । जाता है। 'स्यति छिनत्ति अनध्यवसायम् इति (त. वा. ४, ४, ४)। ४. प्राज्ञैश्वर्याद्विनाऽन्यैस्तु गुणसानम्' इस निरुक्ति के अनुसार यह अवग्रह का रिन्द्रेण सम्मिताः । सामानिका भवेयुस्ते शक्रेणापि सार्थक नामान्तर है।
गुरूकृताः। पितृ-मातृ-गुरुप्रख्याः सम्मतास्ते सुरेशिसान्तरनिरन्तरद्रव्यवर्गणा-अन्तरेण सह णिर-नाम् । लभन्ते सममिन्द्रश्च सत्कारं मान्यतोचितम् ।। न्तरं गच्छदि ति सांतर-णिरंतर दव्ववग्गणासण्णा। (म. पु. २२, २३-२४)। ५. पाश्विर्यवजितमायु(धव. पु. १४, पृ. ६४)।।
ीर्य-परिवार-भोगोपभोगादिस्थानमिन्द्रः समानम्, जो वर्गणा निरन्तर अन्तर के साथ जाती है उसका तत्र भवाः सामानिका इन्द्रस्थानाहत्वात् । (त. नाम सान्तर-निरन्तरद्रव्यवर्गणा है।
श्लो. ४-४)। ६. सामानिकाश्चेन्द्रसमा: परमिन्द्रसान्तरबन्धप्रकृति-जिस्से पयडीए अद्धाक्खएण त्वर्जिताः । (त्रि. श. पु. च. २, ३, ७७२)। बंधवोच्छेदो संभवइ सा सांतरबंधपयडी। (धव. पु. ७. यथा इन्द्रेण सह समाने तुल्ये द्युति-विभवादी
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