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साधन] ११४६, जैन-लक्षणावली
[साधारण जीव चोत्पत्तिकारणम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-७)। लेकर स्थित होना, यह साधारण कायक्लेश कह१ विवक्षित पदार्थ की उत्पत्ति का जो निमित्त है लाता है। उसे साधन कहते हैं (यह जीवादि तत्त्वों के जानने साधारण (भोजन व वसतिदोष)-१. काष्ठ. के उपायभूत निर्देशादि में से एक है।) ३ जो चेल-कण्टक-प्रावरणाद्याकर्षणं कुर्वता पुरोयायिनोपप्रकृत (साध्य) के अभाव में अनुपपन्न है-सम्भव दर्शिता वसतिः साधारणशब्देनोच्यते। (भ. प्रा. नहीं है..-उसे साधन कहा जाता है। यह हेतु या विजयो. व मला. २३०) । २. यद्दतिं संभ्रमाद्वस्त्रालिग का नामान्तर है। ४ जिसका नियम से साध्य द्याकृष्यान्नादि दीयते । असमीक्ष्य तदादानं दोषः के साथ अविनाभाव रहता है उसका नाम साधन साधारणोऽशने ॥ (अन. ध.५-३३); संभ्रमाहरणं है । ५ उपयोगान्तर से व्यवहित दर्शनादि परिणामों कृत्वाऽऽदातुं पात्रादिवस्तुनः । असमोक्ष्येव यद् देयं दोष के-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के---निष्पादन साधारणः स तु ।।(अन.ध. स्वो. टी. ५, ३३ उद.)। को साधन कहा जाता है। यह प्राराधना के लक्षण १ लकड़ी, वस्त्र, कांटे और प्राच्छादक उपकरण का एक अंश है। ८ अन्त में-मरण के समय- इत्यादि के खींचने वाले पुरोगामी पुरुष के द्वारा पाहार, शरीर की चेष्टा और शरीर के त्यागपूर्वक उपशित वसति साधारणदोष से दूषित होती है। ध्यान से प्रात्मा को शुद्ध करना, इसे साधन कहते २ शीघ्रतावश वस्त्र प्रादि को खींचते हुए जो हैं। यह तीन प्रकार के श्रावकों में अन्तिम साधक आहार दिया जाता है उसके रण करने पर माध श्रावक के अनुष्ठान के अन्तर्गत है।
भोजनविषयक साधारण दोष का भागी होता है। सार्धामक-देखो सम्भोग। सामिका: समान- साधारण जीव-१. साहारणमाहारो साहारण- . धर्मिणो द्वादशविधसम्भोगवन्तश्च । (योगशा. स्वो. माण-पाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणविव. ४-६०)।
लक्खणं भणियं (आचारा. नि. 'एयं') । (षट्खं. समान धर्मवालों और बारह प्रकार के सम्भोग ५, ६, १२२--धव. पु. १४, पृ. २२६; प्राचारा. वालों को सार्मिक कहा जाता है। सम्भोग से नि. १३६, पृ. ५३) । २. साधारणं सामान्यं शरीरं यहाँ एकत्र भोजनादिविषयक उस व्यवहार को येषां ते साधारणशरीराः । (धव. पु. १, पृ. २६६); ग्रहण किया गया है जो समान समाचारी वाले जेण जीवेण एगसरीरट्ठियबहूहि जीवेहि सह कम्मसाधनों के मध्य हुमा करता है।
फलमणुभवेयव्वमिदि कम्ममवज्जिदं सो साहारणसाधर्म्य-साधर्म्य नाम साध्याधिकरणवृत्तित्वेन सरीरो। (धव. पु. ३, पृ. ३३३) ३. जत्थेक्क मरइ निश्चितत्वम् । (सप्तभं. पृ. ५३) ।
जीवो तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं । बक्कमइ जत्थ साध्य के प्राधार में निश्चित रूप से रहना, इसका एक्को वक्कमणं तत्थ णंताणं ॥ (गो. जो. १९२)। नाम साधर्म्य है।
४. साहारणाणि जेसि आहारुस्सास-काय-पाऊणि । न्त..- साध्य-साधनयोाप्तिर्यत्र नि. ते साहारणजीवाणताणं तप्पमाणाणं ॥ (कातिके. श्चीयते तराम् । साधर्येण स दृष्टान्तः सम्बन्ध- १२६)। ५. साधारणः स यस्याङ्गमपरैः बहुभिः स्मरणान्मतः॥ (न्यायाव. १८)।
समम् ॥ एकत्र म्रियमाणे ये म्रियन्ते देहिनोऽखिसम्बन्ध के स्मरणपूर्वक जहां साध्या और साधन की लाः । जायन्ते जायमाने ते लक्ष्याः साधारणाः बुधैः । व्याप्ति निश्चित हो उसे साधर्म्य दृष्टान्त कहते हैं। (पंचसं. अमित. १-१०५ व १०७)। ६. येषाजैसे-धूम के द्वारा अग्नि के सिद्ध करने में रसोई- मनन्तजीवानां साधारणनामकर्मोदयवशवर्तिनाम् घर का दृष्टान्त :
उत्पन्न प्रथमसमये पाहारपर्याप्तिः तत्कार्यम् आहारसाधारण (कायक्लेश)-१. साधारणं प्रमृष्ट- वर्गणायातपुदगलस्कन्धखल-रसभागपरिणमनं च स्तम्भादिकमुपाश्रित्य स्थानम् । (भ. प्रा. विजयो. साधारणं समकाल च, तथा शरीरपर्याप्तिः तत्कार्यम् २२३) । २. साधारणं प्रमृष्टं स्तम्भादिकमवष्ट भ्य आहारवर्गणायातपुद्गलस्कन्धस्य शरीराकारपरिणस्थानं उद्भस्यावस्थानम् । (भ. प्रा. मूला. २२३)। मनं च, तथा इन्द्रियपर्याप्तिः तत्कार्य स्पर्शनेन्द्रिया१ प्रमष्ट (प्रमाजित) स्तम्भ प्रादि का प्राश्रय कारपरिणमन च, तथा प्रान-पानपर्याप्तिः बत्कार्यम्
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