Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 478
________________ साधक] ११४५, जैन-लक्षणावली [साधन ग्रादिरिह लभ्यते, तत उक्तं यथोक्तप्रमाण लक्षणे- शोधनम् । यो जीवितान्ते सोत्साहः साधयत्येष नेति । इदमुक्तं भवति ---यत्संस्थानं नाभेरधः प्रमा- साधक: ।। (धर्मसं. श्रा. १०-१) । णोपपन्नमपरिच हीनं तत्सादीति। अपरेतू साचीति १जो देशसंयमी श्रावक प्रात्मध्यान में तत्पर पठन्ति, तत्र साची प्रवचनवेदिन: शाल्मलीतरुमा- रहता हुआ समाधिमरण को सिद्ध करता है उसे चक्षते, ततः साचीव यत्संस्थानं तत्साचिसंस्थानम्, साधक कहा जाता है। ज्योतिष व मन्त्रादि रूप यथा शाल्मलीतरोः स्कन्धः काण्डमतिपूष्ठमपरितना लोकोपकारक शास्त्रों के ज्ञाता को भी साधक कहा तदनुरूपा न महाविशालता, तद्वदस्यापि संस्थान- जाता है । स्याधोभागः परिपूर्णो भवत्यूपरितनभागस्तु नेति ।। साधकतम-यभावे हि प्रमितेर्भाववत्ता यदभावे (प्रज्ञाप. मलय. व. २६८, पृ. ४१२)। चाऽभाववत्ता तत्तत्र साधकतमम् । भावाभावयो१ नाभि के नीचे के सब अवयव, समचतुरस्त्र- स्तद्वत्ता साधकतमत्वम् इत्यभिधानात् । (न्यायकु. संस्थान के समान विसंवाद से रहित होते हैं, परन्तु ३, पृ, २६); यद् यत्रोत्पन्नमव्यवधानेन फलमुत्पाद ग जो अधस्तन भागों के अनरूप नहीं यति तदेव तत्र साधकतमम्, यथा अपवरकान्तर्वतिहोते हैं, यह सादिसंस्थान का स्वरूप है । प्रवचन के पदार्थप्रकाशे प्रदीपः । (न्यायकु. ३, पृ. ३०)। ज्ञाता विद्वान् ‘सादि' का अर्थ शाल्मलिवृक्ष बतलाते जिसके सद्भाव में प्रमिति (प्रादि) का सद्भाव हैं । उसका स्कन्ध अतिशय दीर्घ होता है, परन्तु और जिसके प्रभाव में उसका प्रभाव पाया जाता ऊपर की विशालता उसकी तदनुरूप नहीं होती है। है वह उसके प्रति साधकतम होता है। जो वहां २ 'पादि' से यहां शरीर का उत्सेध नामक प्रध- उत्पन्न होकर व्यवधान के विना फल को उत्पन्न स्तनभाग ग्रहण किया जाता है, प्रादि के साथ-- करता है उसे वहाँ साधकतम माना जाता है। जैसे नाभि का अधस्तन भाग यथोक्त प्रमाण में रहता ग्रह के भीतर स्थित पदार्थों के प्रकाशित करने में है, इससे वह सादि है। अभिप्राय यह है कि जिस दीपक साधकतम है। साधकतम यह करण का संस्थान में नाभि के नीचे का भाग योग्य प्रमाण मे लक्षण है। रहता है, और ऊपर का भाग हीन रहता है उसे साधन- १. साधनमुत्पत्तिनिमित्तम् । (स. सि. सादिसंस्थान कहा जाता है। दूसरे कितने ही १-७) । २. साधनं कारणम् । (त. वा. १-७)। प्राचार्य 'सादि' के स्थान में 'साचि' पढ़ते हैं व ३. साधनं प्रकृताभावेऽनुपपन्नम् xxx । उसका अर्थ शाल्मली वृक्ष करते हैं . (न्यायवि. २-६६; प्रमाणसं. २१)। ४. साधनं साधक-१. साधकः स्वयुक् xxx (सा. घ. साध्याविनाभाविनियमनिश्चयकलक्षणम् । (प्रमाण१-२०); समाधिमरणं साघयतीति साधकः। किं- प. प. ७०)। ५. उपयोगान्तरेणान्तहितानां दर्शविशिष्ट: ? 'स्वयुक' स्वस्मिन्नात्मनि युक समाधिर्य- नादिपरिणामानां निष्पादनं साधनम् ॥ (भ. मा. स्यासौ निष्पन्नदेशसंयम प्रात्मध्यानतत्परः। (सा. विजयो. २)। ६. केन इति कारणप्रकाशनं साधघ. स्वो. टी. १-२०); साघको ज्योतिष-मन्त्रवा- नम्। (न्यायकु. ७६, पृ. ८०२)। ७. साधनं दादिलोकोपकारकशास्त्रज्ञः । (सा. घ. स्वो. टी. साध्याविनाभावनियमलक्षणम् । (प्रमाणनि. पृ. २-५१); देहाहारेहितत्यागात् ध्यानशुद्धयात्म- ३६) । ८. Xxx भवेत् साधनम्, त्वन्तेऽन्नेहशोधनम् । यो जीवितान्ते सम्प्रीतः साधयत्येष साघ- तनुज्झनाद्विशदया ध्यात्यात्मनः शोधनम् ।। (सा. घ. कः ।। (सा. घ. ८-१)। २. ज्ञानानन्दमयात्मानं १-१६)। ६. साधनं उपयोगान्तरेणान्तहितानां साघयत्येष साधकः । श्रितापवादलिङ्गेन रागादि- निष्पादनम् । (भ. प्रा. मूला. २) । १०. निश्चितक्षयतः स्वयुक् ।। (धर्मसं. श्रा. ५-८); सोऽन्ते साध्यान्यथानुपपत्तिकं साधनम् । यस्य साध्याभावासंन्यासमादाय स्वात्मानं शोधयेद्यदि । तदा साधन- सम्भवनियमरूपा व्याप्त्यविनाभावाद्यपरपर्याया सामापन्नः साधकः श्रावको भवेत ॥ (धर्मसं. श्रा. ध्यान्यथानपपत्तिस्तख्येिन प्रमाणेन निर्णीता तत ८-८१); भुक्त्यङ्गहापरित्यागाद् ध्यानशक्त्यात्म साधनमित्यर्थः । (न्यायदी. पृ. ६६) । ११. साधनं ल. १४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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