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सम्भूतार्थप्रतिषेधवचन ]
यदि चार प्रक्षौहिणी अपनी अपनी अक्षर- श्रनक्षर रूप भाषाम्रों के द्वारा एक साथ बोलें तो उनको एक साथ ग्रहण करके सबको कह सकते हैं । सम्भूतार्थप्रतिषेधवचन - पढमं असंतवणं संभूदत्थस्स होदि पडिसेहो । णत्थि णरस्स अकाले मच्चुत्ति जधेवमादीयं || ( भ. प्रा. ८२४) । जिस वचन में विद्यमान पदार्थ का निषेध किया जाता है उसे सम्भूतार्थनिषेधवचन कहा जाता जैसे- 'मनुष्य का अकाल में मरण नहीं होता' यह वचन । कारण यह कि कर्मभूमिज मनुष्यों का कालमरण सम्भव है। यह चार प्रकार के असत्य वचन में प्रथम है । सम्भोग - साधूनां समानसामाचारीकतया परस्परमुपध्यादिदान- ग्रहणसंव्यवहारलक्षण: । ( स्थानां. श्रभय. बृ. १७३ ) ।
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समान सामाचारी सहित होने से साधुनों में जो परस्पर उपधि आदि के देने लेने का व्यवहार होता है उसे सम्भोग कहते हैं । सम्मतिसत्य - १. गजेन्द्रो नरेन्द्र इत्यादिकाः शब्दाः शुभलक्षणयोगात् केषांचित् स्वतोलक्षणत्वादीश्वरत्वेनाभ्युपगममाश्रित्य क्वचिद् गजे मानवे वा प्रयुज्यमानाः सम्मतिसत्य शब्देनोच्यन्ते । ( भ. प्रा. विजयो. ११६३) । २. लोकाविप्रतिपत्तौ सत्यं सम्मतिसत्यमम्बुजमिति । यथा पङ्काद्यनेककारणत्वेऽपि पद्माम्बुनि जातमम्बुजमिति व्यपदेशः । ( श्रन. घ. स्व. टी. ४-४७ ) । ३. संवृत्या कल्पनया सम्मत्या वा बहुजनाभ्युपगमेन सर्वदेशसाधारणं यन्नाम रूढं तत्संवृतिसत्यं सम्मतिसत्यं वा । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २२३) ।
१ गजेन्द्र अथवा नरेन्द्र इत्यादि शब्दों का जो किसी हाथी या मनुष्य के विषय में प्रयोग किया जाता है, इसे सम्मतिसत्य कहा जाता है । यद्यपि उनमें इन्द्रत्व व नरेन्द्रत्व सम्भव नहीं है, पर उत्तम लक्षणों से संयुक्त होने के कारण उसमें जन साधारण की सम्मति रहती है । सम्मूर्च्छन- देखो संमूर्छन । १. त्रिषु लोकेषूर्ध्व मस्तिर्यक् च देहस्स समन्ततो मूर्च्छनं सम्मूर्च्छनमवयवप्रकल्पनम् । ( स. सि. २ - ३१) । २. सम ततो मूर्च्छनं सम्मूर्च्छनम् । त्रिषु लोकेषूर्ध्वमधस्तिक् च देहस्य समन्ततो मूर्च्छनमवयवप्रकल्पनम् ।
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[सम्मोहभावना
(त. वा. २, ३१, १) । ३. समन्ततो मूर्च्छनं शरीराकारतया सर्वतः पुद्गलानां सम्मूर्च्छनम् । ( त. इलो. २ - ३१ ) । ४. सं समन्तात् सर्व दिग्गतस्य शरीरयोग्यपुद्गलपिण्डस्य मूर्छनं गर्भोपपादविलक्षणं शरीराकारेण परिणमनं सम्मूर्च्छनम् । (गो. जी. म. प्र. ८३ ) । ५. सं समन्तात् मूर्च्छनं जायमानजीवानुग्राहकाणां शरीराकारपरिणमनयोग्यपुद्गलस्कन्धानां समुच्छ्रयणं सम्मूर्च्छनम् । (गो. जी. जी. प्र. ८३ ) । ६. त्रैलोक्यमध्ये ऊर्ध्व - अघस्तिर्यक् च शरीरस्य समन्तान्मूर्च्छनमवयवप्रकल्पनं सम्मूर्च्छनमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २ - ३१ ) ।
१ तीनों लोकों में ऊपर, नीचे और तिरछे में जो सब ओर से शरीर के अवयवों की रचना होती है उसे सम्मूच्र्छन जन्म कहते हैं । सम्मूर्च्छनाकुशील • वृक्षगुल्मादीनां पुष्पाणां फलानां च सम्भवमुपदर्शयति, गर्भस्थापनादिकं च करोति यः स संमूर्च्छनाकुशीलः । (भ. श्री. विजयो. १६५०) ।
जो वृक्ष के गुच्छों, पुष्पों और फलों के सम्भव को दिखलाता है तथा गर्भस्थापन प्रादि को करता है उसे सम्मूर्छनाकुशील कहते हैं । सम्मूच्छिम -- समंतात्पुद्गलानां मूर्छन संघातीभवनं सम्मूच्छे:, तत्रभवाः सम्मूच्छिमाः । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १४ ) ।
जो जीव सब ओर से पुद्गलों को ग्रहण कर उत्पन्न होते हैं उन्हें सम्मूमि ( सम्मूर्छन ) जीव कहते हैं । सम्मोह - १. सम्मोहः श्रत्यन्तमूढता । ( अनुयो. हरि. वृ. पृ. ६९ ) । २. सम्मोहः किंकर्तव्यत्वमूढता । ( श्रनुयो. मल. हेम. वृगा. ७० ) ।
१ अतिशय मूढता का नाम सम्मोह है । प्रकृत में यह रौद्ररस के लिंगरूप में व्यवहृत हुम्रा है । सम्मोहभावना - उम्मग्गदेसणो मग्गदूसणो मग्गfacefsaणीय | मोहेण य मोहितो संमोहं भावणं कुणइ ॥ ( भ. प्रा. १८४ ) ।
जो कुमार्ग स्वरूप मिथ्यादर्शन श्रादि का उपदेश करने वाला, सम्यग्दर्शनादिरूप सन्मार्ग को दूषित करने वाला श्रौर सम्मार्ग के विषय में विप्रतिपन्नमोक्ष के मार्गभूत रत्नत्रय को मोक्ष का मार्ग न मानकर उसके विरुद्ध श्राचरण करने वाला हैवह सम्मोहभावना को करता है।
११०१, जैन-लक्षणावली
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