Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 444
________________ सर्पिरास्रवी ] हारादियं पि खणमेत्ते । पावेदि सप्पिरूवं जीए सा सप्पियासवी रिद्धी || ग्रहवा दुःखप्पमुहं सवणेण मुदिदिव्ववयणस्स । उवसामदि जीवाणं एसा सपियासवी रिद्धी ॥ ( ति प ४, १०८६ - ८७) । २. येषां पाणिपात्रगतमन्नं रूक्षमपि सपरस-वीर्यविपाकानाप्नोति, सर्पिरिव वा येषां भाषितानि प्राणिनां सन्तर्पकाणि भवन्ति ते सर्पिरास्रविणः । (त. वा. ३, ३६, ३) । ३. सर्पिर्धृतम्, जेसि तवोमहप्पेण अंजलिउडणिवदिदासेसाहारा घदासादसरूवेण परिणमति ते सप्पिसवीणो जिणा । ( धव. पु. ६, पृ. १०० ) । ४. वीर्यान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षादावि भूताऽसाधारणकायबलत्वान्मासिक-सांवत्सरिकादिप्रतिमायोग ( ? ) रूक्षमपि [ अन्नं ] सर्पिरस - वीर्यवि पाकमवाप्नोति सतिरिवं वा येषां भाषितानि प्राणिनॉ संतर्पकाणि भवन्ति ते सर्पिरास्रविणः । (चा. सा. पृ. १०१ ) । ५. येषां पात्रपतितं कदमपि सर्पिरस - वीर्यविपाकं जायते वचनं वा शरीर-मानसदुःखप्राप्तानां देहिनां सर्पिर्वत्सन्तर्पकं भवति ते सर्पिरास्रविणः । (योगशा. स्वो विव. १-१६, पृ. ३६) । १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से में रखा साधु के हाथ गया रूख प्रहार क्षणभर में घृतरूपता को प्राप्त कर लेता है उसे सपिरास्रवी ऋद्धि कहते हैं । अथवा जिस ऋद्धि के प्रभाव से सुनि के दिव्य वचन के सुनने से जीवों के दुख श्रादि शान्त हो जाते हैं उसे सत्रिवी ऋद्धि जानना चाहिए । सपिस्त्रावी -- देखो सर्पिरास्रवी । ११११, जैन-लक्षणावली सर्व सरत्यशेषानवयवानिति सर्वः । सरति गच्छति, प्रशेषानवयवानिति सर्व इत्युच्यते । (त. वा. ७,२, २) । जो समस्त श्रवयवों को प्राप्त होता है उसका नाम सर्व है, यह सर्व शब्द का निरुक्तार्थ है । यह सर्वविरति की एक विशेषता को प्रगट करता है । सर्वकरणोपशामना देखो करणोपशामना व प्रशस्त करणोपशामना । सर्वकांक्षा - १. अण्णो पुण सव्वपावादियमयाई कंबइ सा सव्वकंखा भण्णइ । ( दशवं. चू. पू. ५) । २. सर्वकांक्षा तु सर्वदर्शनान्येव कांक्षति अहिंसा प्रतिपादनपराणि सर्वाण्येव कपिल-कण भक्षाक्षपादमतानीह लोके च नात्यन्तक्लेशप्रतिपादनपराणि, Jain Education International [सर्वतः कुव्यापार निषेधपोषध अतः शोभनान्येवेति । (श्रा. प्र. टी. ८७ ) । ३. सर्वविषया ( फांक्षा ) सर्वपाखण्डिधर्माकांक्षारूपा । (योगशा. स्वो विव. २- १७) । २ कपिल व कणाद आदि के द्वारा प्ररूपित सब ही सम्प्रदाय अहिंसा का प्रतिपादन करते हैं, तथा वे इस लोक में अधिक क्लेश का भी प्रतिपादन नहीं करते, अतः वे सब ही उत्तम हैं; इस प्रकार सब सम्प्रदायों को प्राकांक्षा को सर्वकांक्षा कहा जाता है। सर्वज्ञ - १. जो जाणदि पच्चक्खं तियालगुणपज्जएहिं संजुत्तं । लोयालोयं सयलं सो सव्वण्हू हवे दे || (कार्तिके. ३०२ ) । २. जो खुह- तिसभयहीणो दोसो तह राग मोहपरिचत्तो । चिताजराहि रहिदो सो सव्वण्हू समुद्दिट्टो || ( जं. दी. प. १३- ८५ ) । ३. तदयं चेतनो ज्ञाता संवेदनात्मा प्रतिक्षणम् । तत्प्रतिबन्ध विश्लेषे सर्वज्ञः सर्वार्थदृक् ।। सर्वज्ञः करणपर्यायव्यवधानातिवत्तिधीः । परिक्षीणदोषावरण: XX X ॥ (सिद्धिवि ८, ३७-३८, पृ. ५८० ); सर्वज्ञः सकलार्थ [विद् ] प्रशेषदोषावृत्तिच्छेदतः । ( सिद्धिवि. ८ - ४३, पृ. ५८७ ) । ४. सर्वज्ञो यथावन्निखिलार्थ साक्षात्कारी । ( रत्नक. टी. १-७) । ५. सर्वं लोकालोकवस्तुजातं जानातीति सर्वज्ञः । ( लघीय. ५०, पृ. ७३) । १ जो त्रिकालवर्ती गुण- पर्यायों से सहित समस्त लोक व लोक को प्रत्यक्ष जानता उसे सर्वज्ञ कहा जाता है । सर्वज्ञानावरण- सर्वं ज्ञानं केवलाख्यमावृणोतीति सर्वज्ञानावरणीयम्, केवलावरणं हि श्रादित्यकल्पस्य केवलज्ञानरूपस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पमिति तत्सर्वज्ञानावरणम् । ( स्थानां. अभय. वृ. १०५ ) । जो केवलज्ञान स्वरूप समस्त ज्ञान को श्राच्छादित करता है उसे सर्वज्ञानावरणीय कर्म कहा जाता है । सर्वतः श्राहारपोषधव्रत- सर्वतस्तु चतुर्विधस्याप्याहारस्याहोरात्रं यावत्प्रत्याख्यानम् । (योगशा. स्वो विव. ३- ८५ ) । चारों ही प्रकार के आहार का दिन-रात के लिए परित्याग करना, इसे सर्वतः श्राहारपोषधव्रत कहते हैं । सर्वतः कुव्यापार निषेधपोषध - सर्वतस्तु सर्वेषामपि कृषि सेवा वाणिज्य-पाशुपाल्य गृहकर्मादीना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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