Book Title: Jain Lakshanavali Part 3
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 474
________________ संहनन] संहनननाम । ( समवा. अभय वू. ४२ ) । ६. संहननम् प्रस्थिरचनाविशेषः । श्राह च मूलटीकाकार:संहननमस्थिरचनाविशेष इति । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २ε३, पृ. ४७० ) । १०. यदुदयादस्थिबन्धनाबन्धन विशेषस्तत् संहनननाम । (भ. श्री. मूला. २१२४ ) । १९. यदुदयादस्थूनां बन्धनविशेषो भवति तत्संहननं नाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११ ) । १ जिसके उदय से हड्डियों का बन्धनविशेष होता है उसे संहनन नामकर्म कहते हैं । ३ हड्डियों के संचय से उपमित शक्तिविशेष को संहनन कहा जाता है । ५ जिसके उदय से शरीर में हड्डियों को सन्धियों अथवा हड्डियों की निष्पत्ति होती है वह संहनन नामकर्म कहलाता है । ८ जिसके श्राश्रय से हड्डियों की विशिष्ट रचना उस प्रकार की शक्ति की निमित्तभूत होती है उसका नाम संहनन है । संहार्यमति--संहार्या क्षेप्या परकीयागमप्रक्रियाभिरसमञ्जसाभिर्बुद्धिर्यस्यासौ संहार्यमतिः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७ - १८ ) । जिसकी बुद्धि दूसरों-कपिल, कणाद व सुगत प्रादिकों की प्रसमीचीन श्रागमप्रक्रिया से विचलित हो सकती है उसे संहार्यमति कहा जाता है । संहिता - अस्खलितपदोच्चारणं संहिता, अथवा परः सन्निकर्षः संहिता ( श्राव. सू. मलय. वू. पृ. ५६६ ) ; तत्रास्खलित पदोच्चारणं संहिता ( श्राव. सू. मलय. वृ. पृ. ५ε१) । स्खलन के विना जो पदों का उच्चारण किया जाता है, इसे संहिता कहते हैं। सूत्र की व्याख्या संहिता, पद, पदार्थ, पदविग्रह, चालना और प्रत्यवस्थान के भेद से छह प्रकार की है। इनमें प्रथम उक्त संहिता ही है । साकल्य - १. साकल्यम् अनन्तधर्मात्मकता । ( लघीय. स्व. वि. ६२, पृ. ६८६ ) । २. साकल्यं हि नाम कारकाणां धर्मः । ( न्यायकु. ३, पृ. ३४ ) ; सकलस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो भावः साकल्यमनन्तधर्मात्मकता । ( न्यायकु. ६३, पृ. ६९० ) । १ वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता का नाम साकल्य है । २ कारकों के धर्म का नाम साकल्य है । इसे भट्टजयन्त प्रमाण मानता है । साकल्यव्याप्ति - १. साध्यधर्मिणि प्रत्र (अन्यत्र ) साध्येन साधनस्य व्याप्तिः साकल्येन व्याप्तिः X Jain Education International ११४१, जैन-लक्षणावली [साकारत्व XX। (सिद्धिवि. टी. ५, १५, पृ. ३४७ ) । २. साकल्येन -- सकलनां देश कालान्तरितसाध्यसाधनव्यक्तीनां भावः साकल्यं तेन । ( लघीय. प्रभय. वृ. ४६, पृ. ७०-७१) । २ देश और काल से व्यवहित समस्त साध्य-साधन व्यक्तियों के स्वरूप से जिस व्याप्ति को ग्रहण किया जाता है उसे साकल्यव्याप्ति कहते हैं। साकारउपयोग-- १. यो विशेषग्राहकः स साकारः, स च ज्ञानमुच्यते । (श्राव. नि. हरि. वृ. ६५) । २. कम्म कत्तारभावो आगारो, तेण श्रागारेण सह वट्टमाणो उवजोगो सागरो त्ति । ( धव. पु. १३, पृ. २०७ ) । ३. श्रायारो कम्म कारयं सयलत्थसत्यादो पुघ काऊण बुद्धिगोयर मुवणीयं, तेण आयारेण सह वट्टमाणं सायारं । ( जयध. १, पृ. ३३८ ) । ४. श्राकारो विकल्पः, सह प्राकारेण साकारः । XX X ( मतान्तरम् ) तस्मादाकारो लिङ्गम्, स्निग्धमधुरादि शङ्खशब्दादिषु यत्र लिङ्गेन ग्राह्यार्थान्तरभूतेन ग्राह्येकदेशेन वा साधकेनोपयोगः स साकारः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. २- ९ ) । ५. विशेषार्थ प्रकाशो यो मनोऽवधि-मति श्रुतैः । उपयोग: स साकारो जायते ऽन्तर्मुहूर्तः ॥ ( पंचसं श्रमित. ३३३, पृ. ४६ ) । ६. मदि सुद-हि-मणेहि य सग-सगविसये विसेस - विष्णाणं । तोमुहुत्तकालो उवजोगो सो दु सायारो || (गो. जी. ६७४) । ७. आकारं प्रतिनियतोऽर्थ ग्रहणपरिणामः 'आगाशे श्रविसेसो' इति वचनात् । सह श्राकारेण वर्तत इति साकार:, स चासावुपयोगश्च साकारोपयोगः । किमुक्तं भवति ? सचेतने अचेतने वा वस्तुनि उपयुंजान आत्मा यदा सपर्यायमेव वस्तु परिच्छिनत्ति तदा स उपयोगः साकार उच्यते इति । (प्रज्ञाप. मलय वू. ३१२, पृ. ५२६) । १ जो उपयोग विशेष को ग्रहण किया करता है उसे साकार कहते हैं । इस साकार उपयोग को ज्ञान कहा जाता है । ३ कर्म-कर्तृत्व का नाम श्राकार है, उस श्राकार के साथ जो उपयोग रहता है उसे साकार उपयोग कहते हैं । ४ श्राकार का अर्थ विकल्प है, उस विकल्प के साथ जो उपयोग होता है उसे साकार उपयोग समझना चाहिए । साकारत्व - १. साकारत्वं विच्छिन्नवर्ण-पदवाक्यत्वेनाकारप्राप्तत्वम् । ( स्थानां. अभय व्. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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